इंद्रप्रस्थ का विस्तारित इतिहास पढ़ें

यह किला पांडव काल के स्मृति स्थलों में गिना जाता है, जो दिल्ली से दो मील के अंतर पर है। यह पांडवों का किला कहलाता चला आया है। लेकिन इस किले को किसी इतिहासकार ने उस काल का बना हुआ नहीं बताया है। अलबत्ता किले में जो खुदाई अब हो रही है, मुमकिन है, वह किसी दिन उस काल का कोई चिह्न प्रकट कर दे।

जब पांडव राज्य छोड़कर अपनी अंतिम यात्रा के लिए विदा होने लगे तो महाराज युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ का राज ब्रज को दे दिया था और हस्तिनापुर का परीक्षित को। मगर जब ब्रज़ अपना राज्य मथुरा ले गए. तब इंद्रप्रस्थ शायद फिर परीक्षित के ही अधीन आ गया होगा। युधिष्ठिर की तीस पीढ़ियों ने राज्य किया। अंतिम राजा क्षेमक को, जो बहुत दुर्बल था, उसके मंत्री विस्रवा ने मारकर राजसिंहासन पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार पांडव कुल का अंत हुआ। पांडवों का राज्य 1745 वर्ष रहा।

विस्रवा की चौदह पीढ़ियों ने राज्य किया। अंतिम राजा वीरसाल सेन अपने मंत्री वीरबाहु द्वारा मारा गया। वीरबाहु के वंशजों ने सोलह पीढ़ी राज्य किया। अंतिम राजा आदित्यकेतु प्रयाग के राजा धांधर द्वारा मारा गया और धांधर की नौ पीढ़ियों ने राज्य किया। इस वंश के अंतिम राजा का नाम राजपाल अथवा रंगपाल था। इस प्रकार परीक्षित से लेकर राजपाल तक छियासठ पीढ़ियों ने राज्य किया। महाराज राजपाल ने कुमाऊं के राज्य पर चढ़ाई की और वह वहां के राजा सुखवंत द्वारा मारा गया। सुखवंत ने इंद्रप्रस्थ को हस्तगत कर लिया, मगर वह अधिक समय तक उस पर कब्जा न रख सका। बारह वर्ष पश्चात महाराज विक्रमादित्य ने इंद्रप्रस्थ पर चढ़ाई की और सुखवंत को मारकर इंद्रप्रस्थ को मालवा में मिला लिया और उज्जैन लौट आया। इस प्रकार न केवल पांडवों की परंपरा समाप्त हुई, बल्कि विक्रमादित्य ने युधिष्ठिर संवत की जगह अपना संवत चला दिया। उसके बाद से आठ-दस शताब्दी तक इंद्रप्रस्थ का सिंहासन खाली पड़ा रहा।

हिंदू काल के यहां तक के इतिहास को देखने से पता चलता है। कि जब विक्रमादित्य ने ईसा की पहली शती में सुखवंत को मारकर पांडवों की प्राचीन राजधानी इंद्रप्रस्थ को मालवा राज्य में मिला लिया, तब करीब एक हजार वर्ष तक भारतवर्ष में अनेक परिवर्तन हुए। कितने ही छत्रपति राजा हुए। बड़े-बड़े नगर बसे और उजड़े कई राजधानियां बदली और उजड़ों, अनेक घटनाएं घटीं, कितने ही विदेशी आक्रमण भी हुए।

405 ई. और 695 ई. के बीच चार विख्यात चीनी यात्री भारत भ्रमण के लिए आए। आखिर के वर्षों में तो महमूद गजनी ने 17 बार भारतवर्ष पर हमले करके भारत को लूटा, मगर इंद्रप्रस्थ का उल्लेख कहीं देखने में नहीं आता। इतिहासकार अलबरूनी ने दसवीं सदी के आखिर में मुसलमानों की हालत का वर्णन किया है। वह कई बरस भारत में रहा। मगर उसने भी इंद्रप्रस्थ अथवा दिल्ली का कोई जिक्र नहीं किया। उसने कन्नौज, मथुरा, भानेश्वर का जिक्र तो किया है और कन्नौज से भिन्न-भिन्न नगरों का अंतर बताते हुए मेरठ, पानीपत, कैथल तक का नाम गिनवाया है, मगर दिल्ली का नाम कहीं नहीं लिया। महमूद गजनी के इतिहासकार उल्वीन ने जिसने उसके आक्रमणों का हाल लिखा है, दिल्ली के पास के चार स्थानों को लूटने का जिक्र किया है, मथुरा और कन्नौज की पराजय का जिक्र किया है. मगर इंद्रप्रस्थ अथवा दिल्ली का हवाला कहीं नहीं दिया। इससे अनुमान होता है कि इंद्रप्रस्थ किसी गिनती में ही न था। यह कोई छोटी-सी बस्ती रही होगी। इसलिए खोज का विषय यह है कि इंद्रप्रस्थ फिर कब और कहां बसा और उसका नाम दिल्ली कैसे पड़ा।

हजार या आठ सौ वर्ष पश्चात इंद्रप्रस्थ का नाम पहली बार हिंदू कवियों (भाटों) की रचनाओं में सुनने में आता है, जो उन्होंने राजपूत राजाओं के संबंध में की है। उनका कहना है कि विक्रमादित्य की विजय के पश्चात 792 वर्ष तक दिल्ली (इंद्रप्रस्थ) उजड़ी पड़ी रही और इसे 736 ई. अथवा संवत 792 में महाराज अनंगपाल प्रथम ने फिर से बसाया।

महाकवि चंदबरदाई ने लिखा है कि अनंगपाल प्रथम, जो तोमर वंश का राजपूत था, वास्तव में चंद्रवंशी पांडवों का वंशज था और कहा है कि इसी राजा ने फिर से नगर बसाकर इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया और इसकी बीस पीढ़ियों ने करीब चार सौ वर्ष इंद्रप्रस्थ अथवा दिल्ली पर राज्य किया, जब अनंगपाल तृतीय ने दिल्ली राज्य को अपने धेवते पृथ्वीराज चौहान को दे दिया।

प्रसिद्ध राजावली ग्रंथ में लिखा है- ‘भारतवर्ष के उत्तरीय भाग कुमाऊं गिरिव्रज से सुखवंत नामक एक राजा ने आकर चौदह वर्ष तक इंद्रप्रस्थ पर राज्य किया। फिर महाराज विक्रमादित्य ने उसे मारकर इंद्रप्रस्थ का उद्धार किया। भारत युद्ध को हुए इस समय तक 2915 वर्ष हुए थे। इसने आगे चलकर लिखा है कि पौराणिक ग्रंथों की खोज करने से यह पता चलता है कि युधिष्ठिर से लेकर पृथ्वीराज तक एक सौ से अधिक राजा नहीं हुए और इन एक सौ राजाओं ने 4100 वर्ष राज्य किया था।”

महाराज अनंगपाल प्रथम ने नई नगरी कहाँ बसाई और इंद्रप्रस्थ का नाम दिल्ली कब और कैसे पड़ा, इस बारे में बहुत कुछ कहा गया है। कुछ का कहना है कि अनंगपाल ने इंद्रप्रस्थ उसी स्थान पर फिर से बसाया जहां वह पहले था और उसका नाम इंदरपत या पुराना किला पड़ गया था, जो आज भी दिल्ली शहर से दो मील की दूरी पर मथुरा की सड़क पर बाएं हाथ खड़ा दिखाई देता है। कुछ का कहना है कि उसने यहां से 10 मील दूर महरौली के पास उसे बसाया था।

कुछ का यह कहना है कि जब मुसलमानों के आक्रमण बहुत बढ़ गए तो इंद्रप्रस्थ को उस स्थान पर बसाया गया, जहां अड़गपुर बंद व गांव और सूरज कुंड है। यह कुंड तुगलकाबाद से कोई तीन मील की दूरी पर और आदिलाबाद से करीब ढाई मील पूर्व दक्षिण में एक पहाड़ी में अड़गपुर गांव से एक मील पर पड़ता है। अड़गपुर के करीब बंद और इस कुंड के निकट सूर्य के एक मंदिर के चिह्न और एक नगर के चिह्न मिलते हैं। प्रतीत होता है कि पहाड़ों में बंद बांधकर यह कुंड बनाया गया था, ताकि नगर के लिए पानी मिलने में कोई कठिनाई न हो।

अनुमान है कि इस बंजर पहाड़ी में यह नगर बसाना शायद इसलिए पसंद किया गया था, क्योंकि मुसलमानों के हमले लगातार हो रहे थे और महमूद गजनी ने उत्तरी भारत पर आतंक जमाया हुआ था। आक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए शायद यह स्थान पसंद किया गया हो, क्योंकि यहां और कोई सुविधा न थी। चंद वर्ष पीछे जब शायद महमूद गजनी के हमलों का भय घट गया- वह 1030 ई. में मर गया था- तो राजधानी वहां से हटाकर मौजूदा कुतुब मीनार के करीब ले जाई गई। कुछ का कहना है कि दिल्ली सबसे पहले किलोखड़ी में बसी थी और लोहे की जो कोली यहां गाड़ी गई थी, उसके उखाड़ने से ही उस स्थान का नाम किलोखड़ी पड़ा था।

अनुमान है कि अनंगपाल प्रथम ने इंद्रप्रस्थ से दिल्ली को हटाकर विक्रम संवत 733 (676 ई.)-792 (735 ई.) में उसे अड़गपुर में बसाया, जो गुड़गांव जिले में तुगलकाबाद से तीन मील और दिल्ली से कोई 12 मील है और यहां एक बहुत बड़ा बंद बनाया। यह बंद एक घाटी पर बनाया हुआ है, जो 289 फुट लंबा है। यह बदरपुर-महरौली रोड से पूर्व दिशा में कोई ढाई मील के अंतर पर पहाड़ियों में बना हुआ है। इंद्रप्रस्थ गुरुकुल से भी रास्ता जाता है। वहां से कोई एक मील है। बंद के दो तरफ पहाड़ हैं और बीच में छोटी-सी एक घाटी है। उस घाटी को बंद करके इसे बनाया गया है।

बंद पक्का और बड़े मजबूत पत्थर का बना हुआ है। यह सतह पर 150 फुट चौड़ा और 120 फुट ऊंचा है। इस बंद के बीच में एक दर 60 फुट गहरा और 215 फुट चौड़ा है। इस दर के सामने तीन नालियां आठ-आठ फुट ऊंची बनी हुई हैं। ये नालियां दीवार की सारी चौड़ाई में चली गई हैं। इन नालियों के दोनों ओर पानी छोड़ने और बंद करने की खिड़कियों के निशान पड़े हुए हैं। इस महराब के दोनों तरफ 37-38 फुट लंबी दीवार है, जिसकी 17 सीढ़ियां मौजूद हैं। इस बंद की मोरी इतनी बड़ी है कि बड़ा आदमी उसमें से चला जाता है। यद्यपि इस बंद में पानी अब नहीं ठहरता, मगर जड़ों में से बारह महीने रिसता रहता है। उसी जमाने में राजा ने इस बंद के पास पहाड़ की चोटी पर गांव के उत्तर-पश्चिम में एक छोटा-सा किला बनाना शुरू किया था।

कहा जाता है कि चारदीवारी के अतिरिक्त और कुछ बनने नहीं पाया था। अब चारदीवारी भी नहीं रही। कुछ खंडहर जरूर दिखाई देते हैं। कंदर भोपाल, जो अनंगपाल का शायद बारहवां बेटा था, उस जगह आबाद हुआ और उसके वंशज वहां रहते रहे। चौथी पीढ़ी में साकरा नामक राजा ने एक गूजरी से शादी कर ली और उससे जो औलाद चली, वह तंवर न रहकर गूजर कहलाने लगी। वही वहां आबाद हैं। इस बंद के एक पहाड़ी भाग में बिल्लौर की खान भी थी, जिसमें बहुत अच्छा बिल्लौर निकलता था। अब वह बंद हो गई है। इस बंद को देखते हुए, जिसे बने करीब तेरह सौ वर्ष हो गए. आश्चर्य होता है कि उस जमाने में भी कैसे-कैसे कारीगर थे और वे कैसा मसाला काम में लाते थे।

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