इस किले को पृथ्वीराज चौहान ने 1180 से 1186 ई. के समय में बनवाया। किला साढ़े चार मील के घेरे में है। इस किले को इसलिए इतना बड़ा बनाना पड़ा कि उत्तरी भारत की ओर से मुसलमानों के हमलों का खतरा बराबर बना रहता था। अब तो यह किला बिल्कुल खंडहर की हालत में रह गया है, लेकिन उसके खंडहरात को देखने ही से पता चलता है कि अपने समय में इसकी क्या शान होगी। इसकी लंबी-चौड़ी दीवारें, इसके मजबूत बुर्ज, इस सबका फैलाव देखकर अनुमान नहीं होता कि इस किले को बनाने पर किस कदर रुपया लगा होगा।

रायपिथौरा के महल और तमाम मंदिर इसी किले के अंदर बने हुए थे। किला एक छोटी-सी पहाड़ी पर बना है और किले के इर्द-गिर्द पहाड़ी में खंदक भी बनी हुई इस खंदक में सारे जंगल का पानी एक बंद बांधकर डाला गया था, जो बारह महीने भरी रहती थी। यद्यपि सारा किला टूट चुका है, मगर पश्चिम में, जहां गजनी दरवाजा था, फसील का थोड़ा निशान बाकी है और गजनी दरवाजे का टूटा ढेर भी मालूम होता है। किले का सबसे अच्छा दृश्य उत्तर और पश्चिम से दिखाई देता है।

कुतुब मीनार पर से तो वह साफ नजर आता है। किले की शुरूआत ऊधम खां के मकबरे से की जाती है; क्योंकि किले की फसील इस मकबरे से बिल्कुल मिली हुई है। इस जगह से फसील सीधी पश्चिम की ओर उस दरवाजे तक गई है, जो चार सौ फुट की दूरी पर है और फिर जरा मोड़ के बाद उत्तर-पश्चिम की ओर 419 फुट तक गई है। यहां से फसील का रुख उत्तर-पूर्व की ओर मुड़ता है और दो सौ कदम बढ़कर रंजीत दरवाजा मिलता है।

मोहम्मद गोरी इसी द्वार से शहर में दाखिल हुआ था। इसी सीध में दो सौ कदम आगे जाकर एक बड़ा बुर्ज़ मिलता है, जो अब भी अच्छी हालत में है। इसे लालकोट की पश्चिमी फसील माना जाता है। फसील तीस फुट चौड़ी और खंदक से साठ फुट ऊंची है। खंदक की चौड़ाई 18 फुट से लगाकर 35 फुट तक है। पहले दरवाजे में कोई खास बात नहीं है। दूसरा दरवाजा रंजीत दरवाजा है जिसका नाम मुसलमानों ने गजनी दरवाजा रखा था। यह एक बड़े मार्के का स्थान है। यहां तीन घुस बने हुए हैं। यह दरवाजा 17 फुट चौड़ा है, जिसमें सात फुट ऊंचा एक पत्थर का खंभा, दरवाजा उठाने और गिराने का अब भी मौजूद है। फसील का यह हिस्सा फतह बुर्ज पर खत्म होता है। फतह बुर्ज का कुतर 80 फुट है। इस फसील के उत्तर-पश्चिम में पुरानी ईदगाह के खंडहर हैं, जो एक बड़ी भारी इमारत थी और दिल्ली के लुटने से पहले जहां अमीर तैमूर का कैंप था और दरबार हुआ था।

फतह बुर्ज से फसील की दो शाखा हो जाती हैं। नीची वाली शाखा उत्तर की ओर झुकी हुई रायपिथौरा के किले को घेर लेती है और ऊपर वाली शाखा सीधी पूर्व की तरफ आगे बढ़ती चली गई है। पहली शाखा सोहन बुर्ज से जा मिली है, जो फतह बुर्ज के मुकाबले में थोड़ी नीची है। दोनों बुजों में दो सौ फुट का अंतर है। शायद फतह बुर्ज और सोहन बुर्ज के बीच में भी एक दरवाजा था, जिसका कोई निशान बाकी नहीं है। सोहन बुर्ज से तीन सौ फुट के फासले पर सोहन दरवाजा है, जो बराए नाम है। यहां से फसील दक्षिण की ओर ऊधम खां के मकबरे तक, जो आधे मील के अंतर पर है, दिखाई देती है।

सोहन बुर्ज और फतह बुर्ज के मोरचों के दरमियान भी छोटे-छोटे सलामीनुमा दमदमे थे, जो नीचे से बहुत फैले हुए थे, जिनके ऊपर का कुतर 45 फुट था और एक-दूसरे का अंतर 40 फुट था। ये दमदमे गिर-गिराकर अब तीस-तीस फुट ऊंचे बाकी हैं। इस फसील के अलावा एक बाहरी फसील और भी है, जिसे घुस के तौर पर बनाया था, जो तीस फुट ऊंचा है। सोहन दरवाजे से फिर ऊंची फसील की दो शाखा हो जाती हैं। जो चिह्न बाकी हैं, उनसे दक्षिण की तरफ फसील का सिलसिला यूं मालूम होता है कि अनंगपाल ताल के पास से गुजरकर फिर भिंड दरवाजा मिलता है और फसील ऊधम खां के मकबरे पर जाकर खत्म होती है। दूसरी शाखा सौ गज तक पूर्व की ओर चली गई है और तुगलकाबाद की सड़क के करीब जाकर खत्म होती है। यहां से ऊधम खां के मकबरे की फसील का पता नहीं है। अनंगपाल का लालकोट और रायपिथौरा का किला दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं।

पठानों के जमाने में भी जब दिल्ली यहां आबाद थी तो इन फसीलों की हालत खराब हो गई थी। मगर चूंकि मुगलों के हमलों का भय लगा रहता था, इसलिए अलाउद्दीन खिलजी ने इन फसीलों की मरम्मत करवाई और पुराने किले को और भी बढ़ाया। 1316 ई. में कुतुबुद्दीन मुबारक शाह ने इस शहर और फसील की तामीर को पूरा करवाया, जिसे अलाउद्दीन अधूरा छोड़ गया था। इब्नबतूता ने, जो 1333 ई. में दिल्ली आया, लिखा है कि किले की फसील का निचला हिस्सा बड़े मजबूत पत्थरों से बना हुआ है और ऊपर का ईंटों से। इससे मालूम होता है कि निचला भाग हिंदुओं का बनाया हुआ था और ऊपर का मुसलमानों ने बनाया।

अब फिर फतह बुर्ज से शुरू करें, जहां से फसील की दो शाखा फूटी हैं। उनमें से एक शाखा, जो पूर्व की ओर जाती है, किले की फसील हैं और दूसरी सीधी उत्तर की ओर चली गई है और इस जगह बीचोंबीच एक दरवाजे का निशान है। इसी ओर यह फसील करीब-करीब आधे मील तक जाकर जहांपनाह के उत्तरी खंडहर से जा मिली है। यहां से फसील का रुख दक्षिण की ओर मुड़ता है और तीन सौ गज से कुछ अधिक जाकर एक दरवाजा मिलता है और आगे दक्षिण की ओर बढ़ो तो दक्षिण-पूर्व की ओर एक दरवाजा मिलेगा।

इस हिस्से के मध्य में दिल्ली महरौली की सड़क मिल जाती है। पाव मील पर एक तीसरा दरवाजा मिलता है, जहां किले की फसील जहांपनाह की दूसरी फसील से फिर मिल गई है। अब यहां से फसील का रुख सीधा दक्षिण की तरफ गया है और यही हौजरानी दरवाजा है। इसी की सीध में आगे चलकर एक बड़ा भारी दरवाजा है, जो बदायूँ दरवाजे के नाम से मशहूर है। यहाँ से फसील दक्षिण पश्चिम की तरफ पलटती है और जहां कुतुब मीनार से तुगलकाबाद की ओर जो सड़क जाती है, वहां जा मिलती है। यहाँ से आधा मील के बीच में बुरका दरवाजा मिलता है, जिसके बाहर घुस बने हुए हैं। यहां से जमाली मस्जिद तक जो तीन सौ गज का अंतर है, फसील का सिलसिला टूट गया है। फिर जमाली मस्जिद से फसील ऊधम खां के मकबरे से जा मिली है। इस तरह यह चक्कर पूरा हुआ और जहाँ से शुरू किया था, वहाँ ही आ पहुंचा। इब्नबतूता ने, जो मोहम्मद तुगलक के समय में आया था, लिखा है कि किले की फसील का आधार 33 फुट है, जिसके अंदर कोठरियां बनी हुई हैं, जहां रात के पहरे वाले दरबान रहते हैं। इन्हीं कोठरियों में गल्ला, सामान, रसद, गोला-बारूद आदि जमा किया हुआ है। इन कोठरियों में अनाज बिगड़ता नहीं। यह फसील इस कदर चौड़ी है कि इसके अंदर सवार और पैदल एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिना किसी रुकावट के चले जा सकते हैं।

रायपिथौरा की दिल्ली के अमीर खुसरो ने बारह दरवाजे बताए हैं. मगर अमीर तैमूर ने दस का जिक्र किया है, जिनमें से कुछ बाहर को खुलते थे, कुछ अंदर की तरफ। यजदी ने अपने जफरनामा में अठारह दरवाजों का जिक्र किया है, जिनमें से पांच जहांपनाह की तरफ खुलते थे। अब इन दरवाजों का सही पता नहीं चलता। जो नाम मिलते हैं, वे हैं- 1. दरवाजा हीजरानी, 2. बुरका दरवाजा ( जफरनामा में जिक्र है कि सुलतान महमूद और मल्लू खां जब किला जहांपनाह छोड़कर पहाड़ों में भाग गए तो पहला शख्स रावी दरवाजे से निकला, दूसरा बुरका दरवाजे से), 3. गजनी दरवाजा, जिसका असल नाम रंजीत दरवाजा था, 4. मौअज्जी दरवाजा (1237 ई. में जब मराठों ने मस्जिद कुव्वतुलइस्लाम में बलवा किया, तो ये लोग इस दरवाजे तक पहुंच गए थे), 5. मंडारकुल दरवाजा (शायद यह दरवाजा लाल महल और मस्जिद कुव्वतुलइस्लाम के बीच में कहीं था), 6. बदायूं दरवाजा सदर दरवाजा था (इसी में से पुरानी दिल्ली के मशहूर बजाजा बाजार का रास्ता निकलता था। इस दरवाजे के सामने फसील की कोठरियां बनी हुई हैं, जिनमें शराब पीने वालों को बंद किया जाता था। यही दरवाजा है, जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी ने मुगलों को हौजरानी के मैदान में पराजित करके उनके सिर काटकर दो बार चबूतरे बनाए थे, ताकि आने वाली नस्लों को इबरत हो। हौजरानी का मैदान भी ऐतिहासिक है, जिसमें बड़े-बड़े भयानक वाकयात हुए हैं। बागी मुगलों और बलवाई मलाहदों का कत्लेआम इसी जगह किया गया है। इनमें से कुछ तो हाथी के पांवों तले रौंदवाए गए। कितनों के तुर्कों ने टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जल्लादों ने उनकी जिंदा खाल सिर से पांव तक खींच ली। इस बदायूं दरवाजे पर अलाउद्दीन खिलजी ने शराब से तोबा की और शराब पीने का तमाम सामान फोड़ डाला। इस कदर शराब बहाई गई कि मैदान में बरसात जैसी कीचड़ हो गई। इस दरवाजे की ओर से बड़े-बड़े हमले होते रहे हैं। बड़े-बड़े जुलूस निकले हैं। गैर-मुल्कों के सफीर शहर में दाखिल होते रहे हैं। अब तो इसका नाम ही बाकी है), 7. दरवाजा हौज खास, तथा 8. दरवाजा बगदादी। बाकी दो दरवाजों के क्या नाम थे और कहां थे यह पता नहीं चलता।

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