शाहजहां के शासन काल में संगीत ने दूसरी कलाओं के साथ प्रगति की। औरंगजेब के काल में लिखी ऐसी बहुत-सी किताबें है, जिनमें आलगमीर बादशाह की खूबियों का ध्रुपद गायन में उल्लेख किया गया है। एक घ्रुपद में औरंगजेब को औलिया और जिंदा पीर भी कहा गया है-

आया आया रे महाबली आलमगीर

साही में साही औलिया जिंदा पीर

बसंत के त्योहार पर एक घ्रुपद में एक मंगला ‘मुखिया’ कहती है, ‘शाह औरंगजेब तुम हमारे साथ बहुत सालों तक (होली) धमार खेलते रहे। लेकिन औरंगज़ेब ने ग्यारहवें साल जूलूस में तमाम संगीतकारों और साजिदों को अपने दरबार से निकाल दिया। इतिहास की सभी प्रामाणिक पुस्तकों में यह कथा दी हुई है कि एक दिन दरबार से निकाले हुए कलाकार एक झूठमूठ का जनाजा लेकर शाही महल के करीब से विलाप करते हुए गुजरे तो औरंगज़ेब ने एक मुसाहिब से पूछा यह किसका जनाज़ा है? उसने हाथ जोड़कर अर्ज किया कि संगीत का इस जवाब पर औरंगजेब हँस दिया और उसने संगीतकारों से कहला भेजा कि इस मुर्दे को खूब गहरा दफन करना ताकि कहीं फिर बाहर न निकल आए।

औरंगजेब का संगीत के प्रति यह रवैया मजहवपरस्ती, सादगी और संयम आदि के कारण था जो तख्तनशीनी के कई साल बाद प्रकट हुआ। तख्त पर बैठने से पहले औरंगजेब को भी इस कला में बड़ी दिलचस्पी थी। अला-उल-मुल्क तूनी औरंगजेब के ही मंत्रिमंडल का सदस्य था जो अपने युग के विशेषज्ञों में से था। हक़ीकत तो यह है कि इसे बहुत से इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि बादशाह होने के दस बरस बाद तक औरंगजेब संगीत का आनन्द उठाता रहा।

13 मई 1659 ई. को औरंगजेब गद्दी पर बैठा था और उसने प्रसिद्ध संगीतकार खुशहाल खां को अपने दरबार में उचित पद दिया। इसी तरह उसने हयात सरस नयन नामक एक संगीतकार को भी इनाम आदि दिए। कृपा नामक मृदंग वादक को ‘मृदंग राय की उपाधि दी। बहुत से ध्रुपद ऐसे मिले हैं जिन पर उनकी मुहर लगी हुई है। उनमें जो भाव बांधे गए हैं वे आलमगीर की शान-शौकत, प्रताप, सालगिरह और दबदबे के बारे में है।

उनमें से कई में होली का जिक्र भी मिलता है। औरंगजेब के एक मुसाहिब मिर्जा रोशन जमीर ने संगीत पारिजात का अनुवाद किया। फकीरुल्लाह ने औरंगजेब को पेश करने के लिए मान कुतूहल का अनुवाद राग-दर्पण के नाम से किया। इबाद मुहम्मद कामिलखानी ने रिसाला-ए-कामिलखानी, असामी सुर और रिसाला दर अमल-ए-बीन-ओ-ठाठ रागिनी जैसी उच्च स्तरीय पुस्तकें औरंगजेब के काल में ही लिखीं।

कई इतिहासकारों ने यह भी लिखा है कि औरंगजेब के तख्त पर बैठने के कई साल बाद तक हरमसरा में संगीत की गोष्ठियां होती रहीं। औरंगज़ेब ने 50 साल की उम्र में अपने आपको एक परहेजगार मुसलमान साबित करने के लिए यह हुक्म दिया कि संगीतकार दरवार में हाजिर तो हों लेकिन गाना न गाएं। यद्यपि दरबार में गाना-बजाना बंद हो गया मगर महलसरा की महफिलों में और रंगरेलियों में कोई फर्क नहीं पड़ा। बेगमों और शहजादियों के लिए गाने वालों की नियुक्ति खुद औरंगजेब करता था।

मिर्जा मुकर्रम खां सफवी ने, जो संगीत कला में निष्णात था, औरंगज़ेब से सवाल किया कि नगमा और सरोद के बारे में हजरत की क्या राय है? तो हजरत ने फरमाया कि जो उसके पात्र हैं उनके लिए हलाल हैं। मिर्जा ने अर्ज किया कि फिर हजरत पात्र होने के बावजूद क्यों इससे परहेज फरमाते हैं? हजरत ने जवाब दिया कि तमाम राग-रागिनियां बिना बांसुरी और खास तौर से पखावज के लुत्फ नहीं देतीं और वांसुरियों के हराम होने पर सभी एकमत हैं। इसलिए मैंने सरोद से किनाराकशी इख्तियार कर ली है।

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