साधकों के प्रश्नों के जवाब में स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने विस्तार से बताया ध्यान का उद्देश्य
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती: अध्यात्म की राह पर चलने वाले हर साधक के मन में यह सवाल उठता है कि ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है? क्या हम किसी ईश्वर, आत्मा या परमात्मा को खोज रहे हैं? वर्षों की साधना, जप-तप और ध्यान के बाद भी जब हाथ कुछ नहीं लगता, तो निराशा घेर लेती है। ओशो के विचारों को सरलता से समझाते हुए स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती इस गहरी गुत्थी को सुलझाते हैं। वे बताते हैं कि हमारी खोज की शुरुआत ही अक्सर गलत धारणाओं से होती है, जिसके कारण हम कभी मंजिल तक पहुँच ही नहीं पाते। आइए, इस प्रवचन के माध्यम से अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप और ध्यान के परम लक्ष्य को समझें।
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बचपन की धारणाओं और मनगढ़ंत ईश्वर का जाल
स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती स्पष्ट करते हैं कि हमारी आध्यात्मिक यात्रा की सबसे बड़ी बाधा वे बचकानी धारणाएँ हैं, जिन्हें हमने बचपन से अपने भीतर पाल रखा है। ‘आत्मा’, ‘परमात्मा’, ‘ईश्वर’, ‘गॉड’, ‘अल्लाह’ जैसे शब्द सुनते-सुनते हमने बिना किसी तर्क या अनुभव के इनकी एक काल्पनिक छवि बना ली। हमने उन्हें रूप, रंग और आकार दे दिया और फिर उसी कल्पना को खोजने निकल पड़े।
जब संसार से शांति, आनंद और संतोष नहीं मिला, तो हम अध्यात्म की ओर मुड़े, लेकिन अपनी उन्हीं पुरानी, बचकानी धारणाओं के साथ। हम मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में जाकर उस काल्पनिक ईश्वर को खोजने लगे, जिसने दुनिया बनाई है। हम यह भूल गए कि यह सब हमारे मन की कल्पना है। सत्य का इससे कोई लेना-देना नहीं है।
समस्या यह है:
गलत शुरुआत: हमारी खोज का पहला कदम ही असत्य पर आधारित होता है। हम एक ऐसे ईश्वर को खोजते हैं, जो हमारी कल्पना की उपज है।
निराशा और भटकाव: जब वह काल्पनिक ईश्वर नहीं मिलता, तो हम निराश होते हैं। हम गुरु बदलते हैं, धर्म बदलते हैं, साधना पद्धतियाँ बदलते हैं और अंत में थक-हारकर नास्तिक बन जाते हैं।
अनेकता में छिपा झूठ: दुनिया में विज्ञान (गणित, भौतिकी, रसायन) एक है, क्योंकि वह सत्य पर आधारित है। लेकिन धर्म और संप्रदाय अनेक हैं, जो यह साबित करता है कि वे व्यक्तिगत दर्शन और मनगढ़ंत धारणाओं पर टिके हैं।
हमारी असली प्यास क्या है? – आनंद, प्रेम और शांति
स्वामी जी जोर देकर कहते हैं कि हमें ‘आत्मा-परमात्मा’ जैसे भारी शब्दों को छोड़कर अपनी सच्ची प्यास को पहचानना होगा। यदि आपको धर्म या ईश्वर के बारे में कुछ न बताया गया होता, तो आपके जीवन में किस चीज़ की तड़प होती?
गौर से देखें तो हर इंसान, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक, किसी भी देश या जाति का हो, अपने भीतर दो गहरी प्यास लिए हुए है:
- आनंद की प्यास: हर कोई शांत, सुखी और आनंदित होना चाहता है।
- प्रेम की प्यास: जो व्यक्ति आनंदित होता है, वह प्रेम से भर जाता है। वह अपने आनंद को दूसरों के साथ साझा करना चाहता है, सबसे जुड़ना चाहता है।
दुखी और उदास व्यक्ति सिकुड़ता है और क्रूर हो जाता है, जबकि आनंदित व्यक्ति खिलता है और प्रेमपूर्ण हो जाता है। यही हमारे जीवन की सहज और स्वाभाविक प्यास है।
ओशो के अनुसार अध्यात्म के चार स्तंभ
स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ओशो के दृष्टिकोण से अध्यात्म को बहुत सरल शब्दों में समझाते हैं। इसके लिए किसी शास्त्र, ग्रंथ या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है। अध्यात्म के केवल चार मुख्य आधार हैं:
- जीवन का सम्मान: अस्तित्व की हर चीज़ के प्रति आदर का भाव।
- ध्यान: होश और सजगता के साथ जीना।
- प्रेम: अपने आनंद को दूसरों के साथ बांटना।
- ओंकार श्रवण: अपने भीतर गूंज रहे अनहद नाद में लीन होकर उसके साथ एक हो जाना।
ओंकार: अस्तित्व का संगीत और ध्यान का परम लक्ष्य
जब हम शांत, आनंदित और प्रेमपूर्ण होकर विश्राम की अवस्था में होते हैं, तब हमें अपने भीतर एक ध्वनि सुनाई पड़ती है। यह किसी वाद्य यंत्र से पैदा हुई ध्वनि नहीं है, इसलिए इसे ‘अनहद नाद‘ या ‘अनस्ट्रक साउंड‘ कहते हैं। यही ‘ओंकार’ है, ‘प्रणव’ है।
- सत्य का अनुभव: यही वह परम सत्य है जिसे नानक ने ‘एक ओंकार सतनाम‘ कहा। यह अस्तित्व का संगीत है जो हर समय, हर जगह गूंज रहा है।
- भ्रांतियों से मुक्ति: आप चाहें तो इसे आत्मा का संगीत या परमात्मा की आवाज़ कह सकते हैं, लेकिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसी छवियों से इसे जोड़ना एक भ्रांति है। बुद्ध और महावीर ने ईश्वर को नकारा, लेकिन इस आंतरिक ध्वनि को नहीं।
- ध्यान का उद्देश्य: ध्यान का असली उद्देश्य इसी ओंकार को सुनना और उसमें डूब जाना है। जब आप इस ध्वनि से एक हो जाते हैं, तो आपका ‘मैं’ यानी अहंकार विलीन हो जाता है।
हरि ॐ तत्सत का वास्तविक अर्थ
उपनिषद के ऋषि कहते हैं- ‘हरि ॐ तत्सत‘। स्वामी जी इसका एक क्रांतिकारी अर्थ बताते हैं। ‘हरि’ का एक अर्थ है ‘हरण करने वाला’ या ‘चोर’। ॐ की ध्वनि महाचोर है। जब आप इसमें डूबते हैं, तो यह आपको आपसे ही चुरा लेती है। पीछे ‘आप’ बचते ही नहीं, केवल वह संगीत बचता है। इसलिए, “वह महाचोर ध्वनि (ॐ) ही परम सत्य है।”
एक सौभाग्य जिसे हम बीमारी समझ बैठे हैं
एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि दुनिया के लगभग 33% लोगों को शांति और एकांत के क्षणों में कभी-न-कभी यह अनहद नाद सुनाई देता है। लेकिन सही जानकारी के अभाव में वे इसे कानों की कोई बीमारी (टिनिटस) समझकर डॉक्टर के पास पहुँच जाते हैं।
जो परम सौभाग्य का क्षण था, वह दुर्भाग्य बन जाता है। सालों साल इलाज चलता है, और अंत में मामला मनोचिकित्सक तक पहुँच जाता है। व्यक्ति एक ऐसी बीमारी से लड़ने लगता है जो है ही नहीं। वह उस परम सत्य को मिटाने की कोशिश करता है, जो मिट नहीं सकता। इस संघर्ष में वह उसके साथ एक होने का, प्रेमपूर्ण होने का अवसर खो देता है।
अध्यात्म का एक वैज्ञानिक और गैर-धार्मिक दृष्टिकोण
अध्यात्म की खोज किसी काल्पनिक भगवान की खोज नहीं है, बल्कि अपने भीतर की शांति, आनंद और प्रेम को अनुभव करने की यात्रा है। इसका अंतिम पड़ाव है अपने भीतर गूंज रहे अस्तित्व के संगीत ‘ओंकार’ को सुनना और उसमें लीन हो जाना।
हमें ‘आत्मा-परमात्मा’ जैसी भ्रामक शब्दावली को छोड़कर एक वैज्ञानिक और तथ्यात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। जब हम सही लक्ष्य को पहचानकर ध्यान करेंगे, तभी हमें तृप्ति मिलेगी। अन्यथा, हम गलत पते पर सही इंसान को खोजते रहेंगे और जीवन भर निराश रहेंगे। असली अध्यात्म बहुत सीधी और सरल बात है, जिसे कोई भी अनुभव कर सकता है।
प्रश्नोत्तर (Q&A)
प्रश्न: स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती के अनुसार ध्यान का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर: उनके अनुसार, ध्यान का मुख्य उद्देश्य अपने भीतर शांति और आनंद को पाना है, जिससे प्रेम का जन्म हो। इस विश्रामपूर्ण और प्रेमपूर्ण अवस्था में अपने भीतर गूंज रहे ‘ओंकार’ या ‘अनहद नाद’ को सुनना और उसमें विलीन हो जाना ही ध्यान का परम लक्ष्य है।
प्रश्न: ईश्वर या परमात्मा की खोज अक्सर व्यर्थ क्यों हो जाती है?
उत्तर: क्योंकि ईश्वर या परमात्मा की हमारी धारणाएँ बचपन से सुने गए विचारों और कल्पनाओं पर आधारित होती हैं। हम एक मनगढ़ंत छवि को खोजते हैं, जिसका वास्तविकता में कोई अस्तित्व नहीं है। गलत शुरुआत के कारण हम कभी सही मंजिल तक नहीं पहुँच पाते और निराश हो जाते हैं।
प्रश्न: ‘ओंकार‘ या ‘अनहद नाद‘ क्या है?
उत्तर: ‘ओंकार’ वह आंतरिक ध्वनि या संगीत है जो पूरे अस्तित्व में निरंतर गूंज रहा है। यह किसी टकराव से पैदा नहीं होता, इसलिए इसे ‘अनहद’ कहते हैं। शांत और गहरे ध्यान में इसे सुना जा सकता है। यही परम सत्य है।
प्रश्न: एक आध्यात्मिक साधक को अपनी शुरुआत कहाँ से करनी चाहिए?
उत्तर: साधक को आत्मा-परमात्मा जैसे काल्पनिक शब्दों को छोड़कर अपनी वास्तविक प्यास को पहचानना चाहिए, जो कि आनंद और प्रेम की है। उसे शांत और होशपूर्ण होकर अपने भीतर उतरना चाहिए, जहाँ वह अस्तित्व के संगीत (ओंकार) से जुड़ सकता है।
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