आधुनिक न्यूयॉर्क वालों की तरह शुरू उन्नीसवीं सदी के दिल्ली वाले अपनी सीमित दुनिया और जानी-पहचानी गलियों के अलावा बाहर की दुनिया में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। वह तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे कि कोई भी कहीं और रहने की ख़्वाहिश कर सकता है। जैसा कि ज़ौक ने कहा था; कौन जाए जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर । खैर वह तो शायरी में बात कर रहे थे लेकिन इस तरह की बात के पीछे अपने शहर की शान और संस्कृति का गर्व था जो अपनी तहजीब, ज्ञान और रूमानियत के लिए मशहूर था। बेशक इसकी सियासत का पतन हो रहा था, लेकिन इसका कल्चर अपने शबाब पर था।

एक चीज़ जिस पर दिल्ली को बहुत नाज़ था, वह थी उसकी ज़बान की खूबसूरती और निफासत। आखिर उर्दू दिल्ली में ही पैदा हुई । यह शायरों और इतिहासकारों की ज़बान थी। आज़ाद ने इसे एक अनाथ कहा है जो शाहजहानाबाद के बाज़ारों में घूम रही थी।” मौलवी अब्दुल हक का कहना है कि अगर कोई दिल्ली में नहीं रहा है तो वह उर्दू का असली कद्रदान नहीं हो सकता। जामा मस्जिद की सीढ़ियां ही बेहतरीन उर्दू का मदरसा हैं। “किसी और शहर में यह बात न थी। दिल्ली के हर घर में शेरो-शायरी की बातें होती थीं। बादशाह खुद शायर थे और शायरी के कद्रदान और किला-ए-मुअल्ला की जबान भी शाइस्तगी और नफासत का आला नमूना था।

जबान का ये नशा मर्दों और औरतों दोनों में था। औरतों की अपनी ख़ास बोली थी और वह भी सब वर्गों में शायरी का शौक सिर्फ रईसों और आला तबके को ही नहीं था बल्कि आम लोग भी इसके शैदाई थे। मिर्ज़ा जवांबख़्त की शादी से दो साल पहले प्रकाशित हुए उर्दू शायरी के संग्रह “गुलिस्ताने शायरी” में दिल्ली के 540 शायरों का कलाम था जिसमें बादशाह और उनके खानदान के पचास शायरों से लेकर चांदनी चौक के एक गरीब भिश्ती, पंजाबी कटरा के एक सौदागर, एक जर्मन यहूदी फ़रासू जो उन कई यूरोपियन्स में से एक था जिन्होंने मुग़ल तहजीब को अपना लिया था–एक नौजवान पहलवान, एक नाई और एक तवायफ भी शामिल थे।” और उनमें से कम से कम 53 स्पष्ट रूप से हिंदू नाम थे।

लिहाजा बावजूद इसके कि वलीदाद खां ने उस रात जवांबख्त की बरात की पेशवाई के लिए दिल्ली की मशहूर और बेहतरीन नाचने वालियों का इंतज़ाम किया था लेकिन लोगों को जो सबसे ज़्यादा याद रहा और जिसका चर्चा मुद्दतों हुआ वह न तो दावत का खाना था, न नाच-गाना और न ही आतिशबाज़ी, बल्कि शादी के वह सेहरे और कसीदे जो शाह के उस्ताद जौक और उनके रकीब मिर्ज़ा नौशा, जिनका तख़ल्लुस ग़ालिब था, ने इस मौके पर सुनाये।

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