त्रिभुवन के विघ्नों का नाश करने वाले श्री गणेश जी की स्तुति
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
भगवान गणेश की स्तुति में प्रस्तुत श्लोक उनके विघ्नहर्ता और मंगलदायक स्वरूप का गुणगान करता है। उनके दिव्य स्वरूप की इस स्तुति में गणेश जी को त्रिभुवन के समस्त विघ्नों का विनाशक और भक्तों का मंगलकारी बताया गया है। यह श्लोक गणेश जी की कृपा और उनकी अनुकंपा से विघ्नों को हरने की कामना को दर्शाता है।
(1)
अविरलमदधाराधौतकुम्भः शरण्यः
फणिवरवृतगात्रः सिद्धसाध्यादिवन्धः।
त्रिभुवनजनविघ्नध्वान्तविध्वंसदक्षो
वितरतु गजवक्त्रः सन्ततं मङ्गलं वः ॥ 1 ॥
जिनका कुम्भस्थल निरन्तर बहने वाली मदधारासे धुला हुआ है; जो सबके शरणदाता हैं; जिनके शरीरमें बड़े-बड़े सर्प लिपटे रहते हैं; जो सिद्ध और साध्य आदि देवताओं के वन्दनीय हैं तथा तीनों लोकों के निवासीजनों के विघ्नान्धकार का विध्वंस करनेमें दक्ष (चतुर) हैं, वे गजानन गणेश आपलोगोंको सदा मंगल प्रदान करें ॥1 ॥
(2)
अशेषविघ्नप्रतिषेधदक्षमन्त्राक्षतानामिव दिङ्मुखेषु।
विक्षेपलीला करशीकराणां करोतु वः प्रीतिमिभाननस्य ॥2 ॥
श्रीगजाननके शुण्डसे सम्पूर्ण दिशाओंमें जो जलकणोंके छींटे डालनेकी लीला होती है, वह समस्त विघ्नोंके निवारणमें समर्थ मन्त्राक्षपात-सी प्रतीत होती है; वह लीला आपलोगोंको प्रसन्नता प्रदान करे ॥ २ ॥
(3)
उच्चैरुत्तालगण्डस्थलबहुलगलद्दानपानप्रमत्त-
स्फीतालिव्रातगीतिश्रुतिविधृतिकलोन्मीलितार्धाक्षिपक्ष्मा।
भक्तप्रत्यूहपृथ्वीरुहनिवहसमुन्मूलनोच्चैरुदञ्च-
च्छुण्डादण्डाग्र उग्रार्भक इभवदनो वः स पायादपायात् ॥ 3 ॥
जिनके अत्यन्त उन्नत गण्डस्थलपर बहती हुई प्रचुर मदधाराके पानसे मत्त हुए झुंड-के-झुंड भ्रमर गुंजार करते हैं और उस कलरवको सुनकर जो आनन्दातिरेकसे अपनी आँखें अधमुँदी कर लेते हैं; जिनके शुण्डादण्डका अग्रभाग भक्तोंके विघ्नरूपी वृक्ष-समूहोंको जड़ मूलसहित उखाड़ फेंकनेके लिये ऊँचा उठा हुआ है, वे रुद्रकुमार गजानन आपलोगोंको विनाश एवं संकटसे बचायें ॥ 3॥