1857 की क्रांति: मिर्जा गालिब इस बात से खासे परेशान रहते थे कि बहादुर शाह जफर उनकी पूरी तरह कद्र नहीं करते बल्कि इसके विपरीत अपना कृपा और बढ़िया वजीफा उनसे कमतर विरोधी जौक को देते हैं। यह ऐसी बात थी जो ग़ालिब कभी न समझ पाए। एक बार उन्होंने हिम्मत करके जफर को यह बताने की कोशिश भी की और उनको लिखाः

“मुझे यकीन है कि आपको जरूर इस पर फख्र होगा कि किस्मत की मेहरबानी से आपके दरबार में ग़ालिब जैसा ख़िदमतगार मौजूद है जिसकी ग़ज़लों में आग की तपिश है। अपना ध्यान मेरी तरफ कीजिये जिसकी मेरी कला हक़दार है। अपनी आंखों के नूर की तरह मेरी कद्र कीजिये। और अपना दिल मेरे दाखले के लिए खोल दीजिये । शहंशाह अकबर के जमाने के शायरों का क्यों जिक्र किया जाए, जब मेरा वजूद इस बात की गवाही देता है कि आपका दौर शायरी में उनसे बेहतर है।

जब 1854 में ज़ौक की मृत्यु हुई तो आखिरकार जफर ने गालिब को अपना उस्ताद नियुक्त कर दिया और वह तनख्वाह जो इस ओहदे के साथ थी उनको मिलने लगी। और ग़ालिब ने इत्मीनान की सांस ली कि एक शख्स जो भटियारों की ज़बान बोलता था गुज़र गया।

हालांकि जफर को गालिब की गजलों की बहुत ज़्यादा कद्र न थी, लेकिन दरबार में शामिल होना ग़ालिब के लिए वित्तीय रूप से बहुत फायदेमंद था। 1852 में, जब बादशाह बीमार थे, तो ग़ालिब ने परेशानी के आलम में लिखा, “अब क्या होगा और मेरा क्या बनेगा कि मैं उनकी दीवार की छांव में सोता हूं।” और फिर थोड़े दिन बाद उन्होंने यह भी लिखा, “मुगल शाहज़ादे लाल किले में जमा होकर अपनी गजलें पढ़ते हैं। लेकिन यह दरबार ज़्यादा दिन कायम नहीं रहेगा। किसको ख़बर है कि यह सब कल मिलेंगे या नहीं और अगर मिलें भी तो उसके बाद क्या होगा। यह महफ़िल किसी वक़्त भी गायब हो सकती है।

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