इतिहास के अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि बहुत प्राचीन काल में विशेष रूप से पूर्व के देशों में, गूढ़ दर्शनशास्त्र और गंभीर धार्मिक शिक्षाओं का केवल मौखिक रूप से वर्णन किया जाता था और यह सिलसिला सदियों तक जारी रहा। इस तरह से इन्सान की सांस्कृतिक पूँजी, मस्तिष्क के माध्यम से बिना लिखे एक से दूसरे को पहुँचती रही। जब इतनी बड़ी बात मनुष्य की पहुँच से बाहर नहीं थी तो क़िस्से कहानियों को इस प्रकार मौखिक रूप से वर्णित करना और सुरक्षित रखना तो एक मामूली-सी बात थी। प्राचीन काल में जहाँ शाम को धुंधलका छाता, तो बच्चे कहानी सुनते सुनते ही सो जाते। ये कहानियाँ लंबी भी होती थीं और छोटी भी, मगर सब-की-सब होती दिलचस्प थीं। यही वजह है कि बच्चे लंबी कहानियाँ सुनना पसंद करते थे जिनमें उनकी इस जिज्ञासा की कि ‘आगे क्या होगा?’ कभी तृप्ति न हो या बहुत देर से। बच्चे बार-बार पूछते, ‘तो फिर क्या हुआ?’ जब कहानी ख़त्म हो जाती थी तो बच्चे अँगड़ाई लेकर मुस्करा उठते थे लेकिन दिल में यह खयाल चुटकियाँ लेता रहता कि काश कहानी अभी खत्म न होती।

उस समय की दिल्ली की घरेलू जिन्दगी का, यह बड़ा सुखद पहलू था । और फिर ये कहानियाँ बच्चों को यों ही बिना मक़सद के नहीं सुनाई जाती थीं बल्कि उनके जरिए बच्चों को व्यवहार कुशलता, प्यार मुहब्बत, बहादुरी और दिलेरी, नेकी और अपने धर्म और रीति-रिवाजों की जानकारी और शिक्षा भी दी जाती थी। इन कहानियों का स्वाभाविक रूप से बच्चों पर बड़ा असर पड़ता था और बच्चे बाद में भी जब आपस में खेलते तो इन कहानियों के बादशाह, शहज़ादों और परियों वग़ैरा का जिक्र करते और कभी-कभी तो उनके जैसा ही अभिनय करते । इन कहानियों को सुनने के लिए केवल बच्चे ही नहीं बल्कि घर के नौकर और नौकरानियाँ और अक्सर मुहल्ले का चौकीदार तक आ जाता था।

कहानी सुनाना मनुष्य के स्वभाव का एक अंग है। हम दिन-रात छोटे-छोटे क़िस्से एक-दूसरे सुनाते रहते कुछ असली, कुछ मनगढ़ंत और कुछ सुने-सुनाए । ऐसा शुरू से ही होता चला आया है। वक़्त गुज़रने के साथ-साथ कहानी सुनाना एक कला और पेशे का रूप धारण कर गया। हिन्दुस्तान कोने-कोने में आज भी देहात और छोटे क़स्बों में भाँड़, नक़्क़ाल और फ़क़ीर गद्य में और गा-गाकर पुराने क़िस्से सुनाते हैं। मगर चूंकि दिल्ली साहित्य और संस्कृति का केन्द्र रही है, इसलिए कहानी सुनाना यहाँ एक अलग कला बन गई और दास्तानों के बयान के लिए उच्च स्तर की और सजी हुई भाषा का प्रयोग होने लगा। क़िस्सागो बहुत लोकप्रिय हो गए और उन्हें इज्जत की निगाह से देखा जाने लगा।

कुछ कहानियों की बुनियाद सच्चाई पर भी होती थी, खास तौर पर ऐतिहासिक कथाएँ और कुछ दास्तानें महज कल्पनाजन्य होती थीं जिनमें अतिशयोक्ति से काम लिया जाता था। ये जिन्नों, परियों और ऐसे राजाओं और राजकुमारियों की कहानियाँ होती थीं जो अद्भुतशक्ति रखते थे और जिन्हें लड़ाई में हराया नहीं जा सकता था। मगर अपनी तिलिस्माती और होशरुवा घटनाओं के कारण ये बेहद दिलचस्प होतीं। सुनने वाले बड़ी लगन और दिलचस्पी से सुनते रहते और ऐसा महसूस करते कि सारी घटनाएँ उनके सामने घट रही हैं। कभी-कभी तो उन पर इतना असर होता कि वह सोचने लगते कि यह सब कुछ उन पर ही बीत रहा है।

मुगलों के समय में दास्तानगोई की कला की उन्नति हुई और मुग़ल सम्राटों और सामंतों ने उसे संरक्षण प्रदान किया। किसी व्यक्ति में कोई खूबी होती तो उसे हाथों-हाथ ले लिया जाता था। बढ़िया कहानी सुनाने वाले अपनी कला का प्रदर्शन शाही दरबार में भी करते थे। जिन कहानी सुनाने वाले कलाकारों की दरबार तक पहुँच न होती वे आम श्रोताओं का मनोरंजन करते। ऐसे किस्से सुनाने वाले कुछ खास जगहों पर अपने आपको जमा लेते ये जैसे जामा मस्जिद की सीढ़ियों या कोई चौक चौराहा और या किसी अमीर की बैठक । दास्तान सुनने के शौक़ीन निश्चित समय से बहुत पहले ही पहुँच जाते और कहानी सुनानेवाले के सामने बैठ जाते जहाँ तक मालूम किया जा सका है, किस्से-कहानी सुनाने वाले का अपनी कला के प्रदर्शन से आर्थिक लाभ या आमदनी करना उद्देश्य नहीं था और न ही उन्हें उससे कोई नियमित आमदनी होती थी जिससे वे अपना निर्वाह कर सकें। हाँ, शाही खानदान के लोग, अमीर और शौकीन लोग कहानी के अंत में खुशी से कुछ नकदी इनाम दिल बढ़ावे के तौर पर दे देते थे जिन्हें दास्तानगो स्वीकार कर लेते थे। अलबत्ता शाही दरबार से जुड़े हुए दास्तानगो को एक नियमित वजीफा या तनख्वाह मिलती थी ।

दास्तान सुनाने वाला अपनी दास्तान के लिए एक दिन मुक़र्रर कर देता था। आम तौर पर गुरुवार के दिन वह अपनी दास्तान सुनाता और उस रोज एक अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती। एक छोटे से चाँदी के प्याले में घोलवा (अफ्रीम से तैयार किया हुआ) दास्तानगो को सबसे पहले पेश किया जाता। वह उसमें एक चुस्की लेकर चुनिया बेगम (अफ्रीम) को दूसरों की तरफ बढ़ा देता। उसके बाद दास्तानगो अपनी दास्तान शुरू करता और अफ़ीम की चुस्कियों के दरम्यान यह दास्तान सुबह की नमाज की अज्ञान तक चलती रहती। कहानी सुनने में लोग इतना खो जाते कि मजाल है कि कोई सुननेवाला आँख भी झपक ले । दास्तानगो अपनी कहानी को एक बहुत ही दिलचस्प मोड़ पर उस दिन के लिए छोड़ देता और साथ ही मस्जिद से सुबह की नमाज की अज्ञान सुनाई देने लगती । दास्तानगो एक अंगड़ाई लेकर कहता, “बाक्री कहानी अगली जुमेरात को सुनाऊँगा। ख़ुदा हाफ़िज़ ।” लोग अपने-अपने कपड़े संभालकर घरों को रवाना हो जाते। घर पहुँचकर सोएँगे और अपनी नींद पूरी करेंगे। वैसे भी जुम्मा है और यह दिल्ली में बाजारों और सरकारी महकमों के लिए छुट्टी का दिन है। दास्तानगो अफ़ीम की एक चुस्की लेकर अपने आपको समेटता है। सुनने वालों के दिमाग़ में दास्तान का यह बहुत ही रोचक मोड़ बार-बार उभरता है और वह उसी क्षण से अगली जुमेरात की शाम का इन्तजार करने लगते हैं। हर दास्तान महीनों चलती रहती। कई दास्तानगो एक शाम की दास्तान ख़त्म करने के बाद फ़ारसी में कहते, “बाक़ी दास्तान फरदा-ए-शब रा”

हर दास्तानगो का कहानी बयान करने का अंदाज अलग होता था, मगर हर अंदाज हमेशा प्रभावकारी और नाटकीय होता था। दास्तानगो की आवाज भारी, गूँजदार और बुलंद होती थी। अगर दास्तान में संवाद आ जाते तो दास्तानगो का लहजा पात्र के अनुरूप बदल जाता। दूसरे शब्दों में, वह न केवल दास्तान सुनाता बल्कि उसमें आवश्यकतानुसार अभिनय से भी काम लेता था। उसका शब्दभंडार भी बहुत विस्तृत होता और वह हर संभव तरीक़े से दास्तान की दिलचस्पी को बनाए रखता।

हर दास्तानगो दास्तान सुनाने की हद तक भाषा पर अधिकार रखता था और जो भाषा और मुहावरे का वह इस्तेमाल करता था उनका श्रोताओं पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। उन्हें अच्छे और नए शब्द सुनने को मिलते थे। दास्तनगो अपनी दास्तानों को जगह-जगह मुद्दतों तक सुनाता रहता था और वे उसे जबानी याद रहती थीं। क्या मजाल जरा-सा भी कहीं चूक जाए। बेवफाई और बदनसीबी के विषयों पर दास्तानों में वह अपने सशक्त वर्णन से श्रोताओं को रुला देता था और लोग आँसू पोंछते और आहें भरते थे। मनोरंजन, हास्य और ठिठोली के लिए यह एक दूसरे तरीके इस्तेमाल करता था जिनमें फ़ब्ती और दो अर्थवाले वाक्यों का इस्तेमाल शामिल था। फ़ब्ती कसने की एक अपनी निराली कला थी और उसे किसी का मजाक उड़ाने के लिए एक शिष्ट और निरीह ढंग समझा जाता था इयर्थक वाक्यों को सुनकर सिर्फ वही लोग आनंद उठाते थे जो उनके दूसरे अर्थ को, जो छिपा हुआ होता था, फौरन समझ जाते थे। विषय की दृष्टि से उस समय की कहानियों को नीचे लिखी हुई चार किस्मों में

बाँटा जा सकता है-

1. युद्धगाथा

2. त्रासदी या कामदी 9. प्रेमाख्यान

4. फरेब और ऐयारी

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