1850 के दशक के शुरू के सालों में ऐसा लगता था जैसे मुगल और अंग्रेज़ न सिर्फ दो दुनियाओं में रहते थे बल्कि अलग-अलग समय-क्षेत्रों में भी।

अंग्रेज बहुत जल्द उठ जाते। दिल्ली सिविल लाइंस के उत्तर में बनी हुई छावनी में सुबह साढ़े तीन बजे बिगुल बज जाता। उस वक्त जब लाल किले में मुशायरा पूरी रौनक से जारी होता और चावड़ी बाजार की तवायफों के कोठे पर नाच-गाना बंद हो रहा होता और लड़कियां अपने पेशे के ज़्यादा बेतकल्लुफ पहलुओं की तरफ बढ़ रही होतीं।

जैसे-जैसे मुगल शायरों और तवायफों का जोश बढ़ता जाता, उधर ऊंघते हुए नौजवान सिपाही लेफ्टिनेंट हैरी गैम्बर, अठारह साला सिपाही जो हाल ही में हिंदुस्तान आया था, और पचास साला अनुभवी अंग्रेज कैप्टन रॉबर्ट टाइटलर भी जम्हाई लेते हुए उठकर अपने बिस्तर पर बैठ जाते और उनके नौकर जल्दी-जल्दी उनकी शेव करने और उनकी टांगों पर जुराबें चढ़ाने में लग जाते।” उनको अभी छावनी के परेड के मैदान में एक लंबी कवायद का सामना करना था।

दो घंटे बाद जब सूरज यमुना के किनारे से निकलना शुरू होता, तो सब शायर, तवायफें और उनके ग्राहक अपने बिस्तरों का रुख करते ताकि रात की नींद की कमी को पूरा कर सकें। उस वक्त तक न सिर्फ फौज के लोग बल्कि बाकी अंग्रेज भी जाग गए होते और वर्जिश में मसरूफ होते।

रॉबर्ट टाइटलर की चुस्त और संजीदा बीवी और अंग्रेज सोसाइटी की हसीना ऐनी फॉरेस्ट (जिसको अभी से हैरी गैम्बर आशिकाना ख़त लिखने लगा था) दोनों छावनी में घुड़सवारी करके वापस आ चुकी होतीं, क्योंकि किसी औरत के लिए सूरज निकलने के बाद सवारी करना उसकी रंगत के लिए नुकसानदेह था। हैरियट भी सुबह छह बजे से अपने जाली से बंद बंगले में नौकरों को निर्देश देने में मसरूफ हो जाती।

सबसे पहले तगड़े नाश्ते की तैयारी शुरू होती, जिसके बगैर विक्टोरियन हिंदुस्तान में कोई भी अंग्रेज अपना दिन शुरू नहीं कर सकता था। इसमें कम से कम मटन चॉप, कोफ्ते, आयरिश स्ट्यू, बत्तख की ग्रेवी, तली हुई कलेजी, पाए, मुर्ग मुसल्लम और कई हिंदुस्तानी खाने मसलन झाल फ्रेजी, हुसैनी सालन, झींगा दो प्याज़ा और मुर्ग मलाई होना ज़रूरी था।

इस फहरिस्त में कभी कुछ ऐंग्लो-इंडियन खाने भी शामिल हो जाते, जैसे मद्रासी गुर्दा टोस्ट, मद्रासी पकौड़े या अदरक और हरी मिर्च के साथ तला कीमा। और हां इसमें अंग्रेजों की खास पसंदीदा खिचड़ी का होना भी बहुत जरूरी होता। हालांकि दिल्ली वाले सख्त गर्मी के मौसम में मछली खाने के खिलाफ थे।

हिंदुस्तान में 1947 तक बहुत ज़्यादा खाना अंग्रेज़ों की खासियत रही। 1926 में ऐडलस हक्स्ले यह देखकर दंग रह गए कि ब्रिटिश सल्तनत के प्रतिनिधि कितना खा सकते हैं। वह लिखते हैं, दिन में पांच बार! दो नाश्ते, लंच, शाम की चाय और रात का खाना आम था। बड़े शहरों में कभी एक छठा खाना भी शामिल हो जाता, जो आमतौर पर थियेटर या नाच की महफ़िल के बाद रात गए खाया जाता।

आम हिंदुस्तानी जो दिन में सिर्फ दो बार और कभी सिर्फ एक बार खाना खाते थे-कभी-कभी तो एक बार भी नहीं अपने को उनके सामने बहुत तुच्छ समझने लगे। उनका कहना था, “हमारे खाने की ताकत से हिंदुस्तानी प्रभावित हैं। इस वजह से हमारी इज्ज़त की जाती है। सल्तनत की ख़ातिर असली वफादार अपना मेदा और आंतें भी कुर्बान कर सकता है। चाहे बाद में उसको कितनी ही बीमारियां क्यों न हों। जब मैं हिंदुस्तान में था तो मैंने भी बहुत कोशिश की लेकिन बावजूद इस ख़तरे के कि मैं अंग्रेज़ों की इज्ज़त खो बैठूंगा और सल्तनत की पूरी शान को मिटा दूंगा, मैं अक्सर दो-तीन बार खाना चुपके से गोल कर देता! मेरी आत्मा इच्छिक होती मगर मेरा जिस्म कमज़ोर है। “

जब छावनी में मेम साहिबान अपने शौहरों का परेड के मैदान से वापस आने का इंतज़ार कर रही होतीं तो पादरी जेनिंग्स सेंट जेम्स चर्च के ख़ामोश हाल में सुबह की सर्विस पढ़ने में व्यस्त होता। फिर कब्रिस्तान के पास कोर्ट में भी चहल-पहल शुरू हो जाती। दोनों चीफ मजिस्ट्रेट जॉन रॉस हचिंसन और चार्ल्स ले बास दफ्तर पहुंच जाते और उनके मेहनती मातहत आर्थर गैलोवे और सद्र अमीन मुफ्ती सदुद्दीन जिनका तखल्लुस आजुर्दा था, वह भी अपनी जगह आकर बैठ जाते।

उस वक्त कश्मीरी दरवाज़े की तरफ से दूसरे ज्वाइंट मजिस्ट्रेट थियो मैटकाफ भी जल्दी-जल्दी घोड़ा दौड़ाता काम पर आ रहा होता। वह अपने पिता की तरह जल्दी नहीं उठ पाता था जिसने उस वक्त तक अपने दिन का आधा काम ख़त्म कर लिया होता और साथ ही घर का सारा इंतज़ाम, हौज में तैरना और अखबार पढ़ना भी थियो की तरह सिविल लाइंस भी, अपनी बीवी एलिजाबेथ को गुडबाइ कहकर, सिविल लाइंस से कश्मीरी दरवाज़े वाले देहली गज़ट के दफ्तर की तरफ जा रहा होता ताकि अपना दिन का कारोबार यानी अख़बार में लिखने-पढ़ने का काम शुरू कर सके।

दिल्ली के रहने वालों में गरीब लोग अमीरों से बहुत पहले उठ जाते। सूरज निकलने से पहले जब अंग्रेज़ सवारी करके वापस आ रहे होते और नाश्ते के लिए तैयार होते तो कदम शरीफ की दरगाह के पास जालबाज़ परिंदे पकड़ने के लिए अपने जाल बिछाकर उनमें जौ के दाने का दाम डाल रहे होते ताकि उन सुबह की चिड़ियों को पकड़ सकें जो खाने की तलाश में निकलती थीं। उनके सामने से फल बेचने वाले दोआबा की तरफ से पैदल या बैलगाड़ियों में सवार काबुली दरवाज़े की तरफ नई खुली सब्जी मंडी जा रहे होते।

राजघाट गेट पर धोबियों के आने और भीड़ होने से पहले सुबह-सुबह उठने वाले हिंदू श्रद्धालु यमुना में नहाने और पूजा करने निकल पड़ते। उनमें ज्यादातर औरतें होतीं जो सूती साड़ी पहने स्नान करने आतीं। यमुना के किनारे निगमबोध तक बने हुए छोटे छोटे मंदिरों में पंडित सुबह-सुबह पूजा करने आते। उनका कहना था कि वेद उसी पानी से निकले हैं।

अब मंदिरों में घटियां बजना शुरू हो जातीं ब्रह्म यज्ञ के लिए, जो रोजाना सुबह बार-बार ब्रह्म द्वारा संसार को पैदा करने के जश्न को मनाने के लिए किया जाता। तरह-तरह की घंटियों और संस्कृत के श्लोकों की आवाज़ सुनाई देती और उसके साथ मंदिरों के अंदर रखी हुई विष्णु की मूर्ति और गेंदे के फूलों से सजे काले पत्थर के शिव लिंगम की आरती उतारी जाती।

शहर की चारदीवारी के अंदर दक्षिण में कश्मीरी कटरे की मस्जिद से लेकर पश्चिम में फतेहपुरी मस्जिद और शानदार जामा मस्जिद और यमुना किनारे बनी ख़ूबसूरत जीनतुल मस्जिद की मीनारों तक हर तरफ अजान की आवाजें बुलंद होने लगतीं। एक के बाद एक जिससे दरिया के किनारे खड़े सुनने वालों को यह रूहानी पुकार मौज दर मौज सुनाई देती। जैसे ही अजान की आवाज़ बंद होती तो इस ख़ामोशी को एकदम चिड़ियों के चहचहाने की आवाज़ तोड़ देती। तोतों की तकरार, तूती की पुकार, मैना का चहचहाना और ज़फ़र के रौशन आरा बाग़ के अंदर आम के दरख्तों से कोयल की कू कू ।

अब शहर के अंदर भी ऊंची दीवारों वाली हवेलियों के लोग, जैसे मटिया महल में अज़हर देहलवी की हवेली में, नौकर जागने लगते, और गले साफ़ किए जाने लगते, और ख़स की चिकें उठा दी जातीं, ताकि पाईं बाग़ के फव्वारों और नहरों का नज़ारा हो सके। अब जल्दी-जल्दी बरामदों से बिस्तर और गाव तकिये उठा दिए जाते और वहां नाश्ता लगने का इंतज़ाम होने लगता।

हिंदुओं के घर आम या आलू पूरी और मुसलमानों के यहां मटन शोरबा। नौकर कुंओं से पानी निकालते और फिर सब्जी मंडी का रुख करते ताकि वहां से ताज़ा खरबूजे खरीद सकें। ज्यादा खुशहाल घरों में कॉफी का दौर चलता । फिर मर्दाने में पहला हुक्का पेश किया जाता और जनाने में औरतें और बच्चे तैयार होने लगते। चोली, घाघरा, अंगिया चढ़ाई जाती और पेशवाज़ या साड़ी पहनी जाती । बावर्चीखाने में भी रोज़ का मामूल शुरू हो जाता। प्याज़, मिर्च, अदरक काटी जाती और मटर और चने की दाल भिगो दी जाती। घरों के अंदर औरतें और बच्चे इबादत, सिलाई-कढ़ाई या खेल में लग जाते।

कुछ देर बाद बड़े लड़के मदरसों का रुख करते और दिन की पढ़ाई शुरू हो जाती। पहले कुरआन हिफ़्ज़ कराया जाता, फिर मौलवी उसके मायने और रहस्य बताते। किसी दिन दर्शन, या धर्मशास्त्र या भाषण कला सिखाई जाती। उन मदरसों में बच्चे बोर नहीं होते थे बल्कि बड़े शौक से आते थे बल्कि कुछ छात्र तो ग्रैंड ट्रंक रोड पर बसे एक छोटे से गांव से रोज़ाना पैदल दिल्ली आते थे चाहे मूसलाधार बारिश ही क्यों न हो रहीं हो। वह अपनी किताबें एक छोटे से घड़े में रख लेते थे ताकि वह भीगें नहीं।”

जकाउल्लाह याद करते हैं कि बचपन में वह शाहजहानाबाद की गलियों में तेज़ी से दौड़ लगाते थे ताकि दिल्ली कॉलेज वक्त पर पहुंच जाएं। उनको पढ़ने का बहुत शौक था ख़ासकर गणित का। कर्नल विलियम स्लीमैन जो दिल्ली की अदालतों के प्रशासन की आलोचना करने और मुज़रिमों को सख्त सजा देने के लिए मशहूर थे वह भी मानते थे कि दिल्ली के मदरसों में जो शिक्षा दी जा रही थी वह बहुत बाकमाल थी।

एक बार दिल्ली आने पर उन्होंने लिखा: “शायद दुनिया में बहुत कम ऐसी क़ौमें हैं जहां शिक्षा इतनी फैली है जितनी हिंदुस्तान के मुसलमानों में। वह आदमी भी जो महीने में सिर्फ बीस रुपए कमाता है अपने बेटों को वज़ीरे-आज़म के मुकाबले की शिक्षा देता है। वह अरबी और फ़ारसी में वह सब शिक्षा हासिल करते हैं जो हमारे बच्चे कॉलेजों में यूनानी और लातीनी जबानों में सीखते हैं। यानी ग्रामर, तर्कशास्त्र और भाषण कला। सात साल की शिक्षा के बाद यह नौजवान मुसलमान लड़का अपने सर पर पगड़ी फख से बांधता है। उस सर पर जो उस रह ज्ञान के भंडार से भरा हुआ है जैसे किसी भी ऑक्सफोर्ड से पढ़े हुए लड़के का । वह सुकरात, अरस्तू, अफलातून, बुकात, बू अली सीना और जालीनूस के बारे में उसी की तरह महारत से गुफ्तगू कर सकता है और उसके लिए फायदेमंद बात यह है कि यह सब ज्ञान उसने उन भाषाओं में हासिल किए हैं जिनकी उसे उम्र भर ज़रूरत रहेगी।

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