1857 की क्रांति: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा कि एक आंख के बदले दूसरी आंख से दुनिया अंधी हो जाएगी। हिंसा कभी भी समाधान नहीं हो सकती। 1857 की क्रांति की दास्तान पढते हुए आपको भी यही एहसास हुआ। हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा होती है, जो हर रूप में समाज के लिए अहितकारी साबित होती है। इसे अंग्रेज अफसर एडवर्ड वाइबर्ट की कहानी से समझ सकते हैं।

विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि वाइबर्ट अपने दिल्ली के फरार की मुसीबतें झेलने के कुछ दिन बाद, जब वह आराम करके मेरठ से चलने वाला था, तो उसको पता चला कि उसके मां-बाप, छोटे भाई और दो बहनें कानपुर के कत्ले-आम में मारे गए।

वाइबर्ट ने 11 मई की त्रासदी और मेरठ फरार होने तक अपनी खुशमिजाजी और इंसानियत को कायम रखा था, लेकिन अब जब उसने वह सब कुछ खो दिया, जिसके लिए वह जिंदा था, तो उसके दिल में सिर्फ इंतकाम की ख़्वाहिश रह गई। मरने या मारने की ख़्वाहिश, और उसके दिल में यह विचार बैठ गया था कि गॉड ने उसकी जान सिर्फ इसी काम के लिए बचाई है: “मेरे मां-बाप का इंतकाम, मेरी प्यारी मां, मेरे छोटे भाई-बहनों और मेरे बेचारे बाप का इंतकाम लेने के लिए।

“मुझे ऐसा लगता है कि अब कोई चीज़ मुझे आनंद या खुशी नहीं दे सकती,” उसने इंग्लैंड में अपने चचा गॉर्डन को लिखा, जो उसके बचे हुए रिश्तेदारों में से थे।

“मैं सिर्फ अपने बेचारे मकतूल मां-बाप के बारे में सोच सकता हूं। मैं बस एक मशीन की तरह काम करता हूं और मुझे ऐसी कोई परवाह नहीं है कि मेरा क्या होगा। हे ईश्वर! मैं क्यों तेरी कृपा से बच गया और मेरे मां-बाप क्यों मुझसे छीन लिए गए? हर कागज़ जो आता है मैं उसको दुखते हुए दिल से पढ़ता हूं, जिसमें कानपुर में उन पर गुजरी मुसीबत और तकलीफ का विस्तार से हाल लिखा होता है। कभी मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर उनको इतनी तकलीफ नहीं दे सकता और वह अभी जिंदा हैं। और मेरी आंखों के सामने मेरी प्यारी मां का चेहरा आ जाता है, जैसा वह उस वक़्त होगा जब मेरे फरार की खबर सुनकर उन्होंने मुझे लिखा था, ‘मैं अपनी आखरी घड़ी तक खुदा का शुक्र अदा करूंगी और उसके अहसान को याद रखूंगी कि उसने तुम्हें, मेरे प्यारे बेटे को, अपनी कृपा से हमारे लिए ज़िंदा रखा’-और अब मैंने इतनी मुहब्बत करने वाली मां को खो दिया और उसकी यादगार के नाम पर मेरे पास बस वह कीमती खत रह गया है।

“और मेरे पिता भी-मैं उनको देखता हूं, जब मैंने बगावत शुरू होने से सिर्फ चार दिन पहले दिल्ली वापसी के समय उनको गुडबाइ कहा था, और उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा था, ‘खुदा तुम पर अपनी कृपा रखे, मेरे बच्चे,’–और अब मैं ज़िंदा हूं और वह जा चुके हैं। जब मैं सोचता हूं कि उन्होंने कैसा कष्ट उठाया होगा और कि उनके पास कोई ऐसा नहीं था, जो उन्हें दिलासा या तसल्ली दे सके, तो मैं बिल्कुल पागल हो जाता हूं और इन कमीनों, कातिलों और शैतानों से बदला लेने की कसम खाता हूं… जब मैं यहां (रिज पर) आया था, तो मुझे मौत का कोई डर नहीं था, सिर्फ इंतकाम की ख्वाहिश थी, बाद में सिर्फ यह कहने की ख्वाहिश थी कि ‘हां, मैं भी वहां मौजूद था। मैं भी दिल्ली में था, अपने मां-बाप का बदला लेने के लिए।’ कभी-कभी इन प्राणियों को मरते देखकर मैं कांप उठता हूं।

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