1857 की क्रांति: 25 अगस्त को अंग्रेजी फौज का नजफगढ में बागी सिपाहियों से सामना हुआ। अंग्रेजी फौज ने सिपाहियों के दलदल में फंसने का नाजायज फायदा उठाया और कत्लेआम मचाया। बागी सिपाहियों के कमांडर बख्त खां पर गद्दारी का आरोप लगाया गया था।
ऐसे में जब उसको पालम के पुल के पास यह खबर मिली कि नीमच के दस्तों को अंग्रेजों ने घेर लिया है। तीन दिन पहले नीमच के जनरलों ने उस पर गद्दारी का इल्जाम लगाया था, इसलिए अब उसको उनकी मदद करने की कोई जल्दी नहीं थी। बल्कि तोपों की आवाज सुनकर बख्त खां ने पीछे वाले सवारों को रोक लिया।
सईद मुबारक शाह के मुताबिकः
“असल बात तो यह थी कि उसके और नीमच फौज के अफसरों के संबंध अच्छे नहीं थे और इसलिए वह एक दूसरे की तबाही चाहते थे। दोनों के सरदार यह चाहते थे कि सिर्फ उनका नाम ही मशहूर हो और वह ही विजयी कहलाएं। लेकिन खुशकिस्मती से नासिराबाद की फौज सीधी तरफ से आगे बढ़ गई थी और उनकी गोलियों से सौ से ज्यादा अंग्रेज मारे गए। जिसकी वजह से नीमच के दलदल में फंसे सिपाही निकल सके वर्ना अगर ऐसा नहीं होता, तो उस ब्रिगेड का एक आदमी क्या एक जानवर तक भी नहीं बच पाता।
उनकी तोपें अंग्रेजों के हाथ आ चुकी थीं और उनकी फौज तितर-बितर होकर भाग रही थी और उनके फरार होने पर पीछे से बराबर उन पर गोलियों की बौछार हो रही थी। आखिर गिरते-पड़ते और बिल्कुल खस्ता हाल में वह बख्त खां के ताजादम सिपाहियों तक पहुंचे और उनके साथ दम लेने को रुक गए। उधर अंग्रेजों ने कब्जा हुई तोपों के हिस्से अलग करके उनको हाथियों पर लादा और रिज पर अपने कैंप में भेज दिया। दोनों पक्षों के लिए यह एक अहम बदलता वक्त था। ढाई महीने पहले बादली की सराय में दिल्ली की फील्ड फोर्स ने बागी सिपाहियों से खुले मैदान में लड़ाई की थी। उसके बाद यह पहला मौका था कि उन्होंने खुले मैदान में मुकाबला किया और इस बार क्रांतिकारियों की ज़बर्दस्त हार और उससे उनकी हिम्मत टूट जाने से किसी को शक नहीं रह गया कि अब शहर पर पूरा हमला होने में देर नहीं है।