1852 में हालात यह थे कि हालांकि मुगल और अंग्रेज एक ही शहर में रह रहे थे और अक्सर एक दूसरे के नज़दीक रह रहे थे, लेकिन फिर भी दोनों में दूरी बढ़ती जा रही थी। जहां दिल्ली की ब्रिटिश सोसाइटी में पहले अक्सर हिंदुस्तानियों से शादियां होती थीं या कम से कम ताल्लुकात कायम होते थे, वहीं अब बिल्कुल दूरी हो गई थी।

दिन-ब-दिन आपस में मेलजोल कम होता जा रहा था। न ही एक दूसरे को समझने की कोई कोशिश थी। और यह कहीं इतना स्पष्ट नहीं था जितना दिल्ली के दो बड़े अखबारों में। अगर इन दोनों अखबारों की रोजमर्रा की खबरों का अध्ययन किया जाए, तो इससे अंग्रेजों और दिल्ली के लोगों में बढ़ती हुई दूरी का अंदाजा हो जाएगा। देहली उर्दू अखबार और डेल्ही गैजेट दोनों की सिर्फ जेनिंग्स की आक्रामक रूप से बढ़ती मिशनरी कार्रवाइयों पर एतराज करने में सहमति थी, लेकिन इसके अलावा बहुत कम ऐसे मसले थे जिन पर दोनों सहमत हों।

अगर उनके 1852 की प्रतियों में रोजाना की खबरों पर नजर डाली जाए तो लगता है जैसे दोनों बिल्कुल अलग-अलग शहरों की खबरों का जिक्र कर रहे हैं। देहली उर्दू अखबार का मानना था कि यह जिंदगी में सुधार की शिक्षा देता है; इसका काम है अच्छी आदतों का प्रचार और बुराई से दूरी’, लेकिन दूसरे अखबार इससे सहमत नहीं थे। एक विरोधी उर्दू अख़बार इसको “एक बेकार अख़बार” कहता था जिसमें सिर्फ गपबाज़ी और बकवास होती है और उन बाइज्जत लोगों पर हमला जो एडिटर की राय से सहमत नहीं। यह खासतौर पर इसलिए कहा जा रहा था क्योंकि देहली उर्दू अखबार के सच बोलने वाले शीया एडीटर मौलवी मोहम्मद बाकर हमेशा दरबार में, उलमा में, और यहां तक कि अंग्रेज हुकूमत में बदचलनियों का जिक्र करते थे।

हालांकि यह अख़बार पूरी तरह ज़फ़र का वफादार था, लेकिन फिर भी यह किले के प्रशासक अफसरों की बदइंतजामी की आलोचना करता रहता था जो वजीफों की रकम बहुत देरी से देते थे (‘सिर्फ उन लोगों को अपनी तन्खवाह मिलती है जो बादशाह या मुख्तार, या शाही हकीम के ख़ास लोग हैं), और जब कुछ बदचलन शहजादों को उनके किए की सजा मिलती तो यह बहुत खुश होता – मसलन जब बिगड़ैल शहजादे मिर्जा शाहरुख का दिल्ली के साहूकारों ने कदम शरीफ की दरगाह जाते हुए पीछा किया। इस पर अखबार ने लिखा कि यह सब दुष्टता उन नालायक दरबारियों की वजह से हैं जो नेकदिल बादशाह की आंखों में धूल झोंक रहे हैं।

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