उस दौर में नौटंकी के साथ स्वांग भी हर खास आम आदमी के लिए मनोरंजन का एक बड़ा साधन था। स्वांगी तरह-तरह के स्वांग भरते थे और नकल करने, बहुरूप- भरने, मजाक उड़ान में माहिर थे। स्वांग का उद्गम भी नाटक ही है। स्वांगी त्योहारों पर अक्सर जुलूसों के साथ चलते हुए दिखाई देते थे। स्वांग का अपना एक रंग होता था। वह नवयुवकों और बड़े-बूढ़ों दोनों के लिए घटिया दरजे का मजाक उपलब्ध कराता था इसलिए स्वांग का स्तर भगतबाजी और नौटंकी की तुलना में हमेशा बहुत कम रहा। स्वांग में जो मजाक किया जाता था उसका कोई बुरा नहीं मानता था।
दिल्ली में यह आम रिवाज था कि बहुरूपिया डाकिए या थानेदार या किसी अंग्रेज़ का भेस भरकर त्योहारों पर घर-घर जाता था और इनाम पाता था। एकाएकी तो घर की औरतें और बच्चे यह पहचान भी नहीं पाते थे कि दरवाज़े पर खड़ा डाकिया नहीं है बल्कि बहुरूपिया है। कहा जाता है कि मुहम्मद शाह एक स्वांग देखने में मस्त था जब नादिरशाह की सेनाएं दिल्ली की तरफ बढ़ रही थी।
स्वांग को दो-चार बहुरूपिए मिलकर एक छोटे-से नाटक के रूप में प्रस्तुत करते थे। यह खेल ज़्यादा-से-ज्यादा बीस-पच्चीस मिनट का होता था और इसमें बहुरूपिए जो भूमिका निभाते थे वे भी आम तौर पर दर्शकों की पंक्तियों में ही बैठे हुए होते थे। जिन्हें सब पहचानते थे। स्वांगी ऐसा बहुरूप भरते थे कि असली आदमी ही मालूम होते थे। फिर उन्हीं की तरह बात करते। दिल्ली में बहुरूपियों और विदूषकों का एक और भी महत्त्व था। जब बादशाह अपनी रंगरेलियों में मस्त होता या कोई तमाशा निजी तौर पर देखता हुआ होता तो किसी की मजाल न होती कि अंदर जाकर कोई दुःखद समाचार देता। यह काम शाही दरबार के आने वाला विदूषक या बहुरूपिया ही करता। मुहम्मदशाह रंगीले को भी नादिरशाही फौजों के दिल्ली पर चढ़ आने की ख़बर एक बहुरूपिए ने ही दी थी। स्वांगियों और बहुरूपियों ने भी बादशाह और अमीरों और नवाबों के मनोरंजन के लिए अपनी अलग-अलग पार्टियां बना लीं थीं।
दिल्ली में स्वांगियों और बहुरूपियों की एक बड़ी तादाद थी जो हर रोज इस तरह के भेष बदलकर लोगों के सामने आते थे। ये लोग ज्यादातर पेशेवर थे और इसी के जरिए अपनी रोजी कमाते थे। मुहम्मद शाह रंगीले के वक्त में बेहतरीन बहुरूपिया इनायत था। कहते हैं कि एक दिन बादशाह सलामत के निजी हकीम और चिकित्सक हकीम-उल-मुल्क मुंह लटकाए और उदास दिल्ली के लाल किले में आए और बादशाह से इनायत की शिकायत की कि वह उनका बहुरूप भरकर दरबार में आ जाता है।
बादशाह ने नाराज़ होकर हुक्म दिया कि अगर आइंदा इनायत हकीम-उल-मुल्क का भेस बदलकर दरबार में आए तो उसकी पिटाई की जाए और कोड़े लगाए जाएं। यह बात अगले कुछ दिनों में ही हो गई और इनायत की पिटाई हो गई और दरबार से निकाल दिया गया। बाद में यह हकीकत जाहिर हुई कि जिसने शिकायत की थी वह इनायत ही था और जिसे मारकर दरबार से निकाला गया था वह खुद हकीम-उल-मुल्क थे। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भी बहुत अर्से तक बहुरूपिए दिल्ली की सड़कों पर नज़र आते रहे। इक्का-दुक्का बहुरूपिया तो पचास साल पहले भी कहीं-कहीं नज़र
आ जाता था।
अब दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में नौटंकी, भगत और स्वांग आदि शब्द अपरिचित-से हो गए हैं। हकीकत तो यह है कि उत्तर भारत के दूसरे प्रदेशों में भी ये कलाएं मिट-सी गई हैं। केवल राजस्थान के कुछ जिलों में उनके कुछ धुंधले-से लक्षण मौजूद हैं। हां, कठपुतली या शब्बाजी का तमाशा अभी तक काफी लोकप्रिय है। अब कुछ अर्से से कुछ नागरिक संगठन दस्तानों और काठ की बनी कठपुतलियों से नए-नए ढंग के तमाशे पेश कर रहे हैं। मगर उनके दर्शक गांव के लोग नहीं, ऊंचे तबके के मर्द और औरतें हैं।