दिल्ली वालों की शौकीन मिजाजी और शाहखचीं मशहूर थी। दिल्ली में एक-से-एक मनचला रईस था जिनके ठाट-बाट देखने योग्य थे। उन्हें नित नई सूझती थी। जरा-सा मौका मिलता कोई महफिल सजा लेते। कोई भी आयोजन होता भांड, नक्काल और तवायफें बुला ली जाती। मुगलकाल में भौंडों और नक्कालों की अपनी खास अहमियत थी और उसकी कद्र खवास और अवाम दोनों करते थे। जहां समारोहों में भांड और नक्काल बुलाए जाते ही थे, ये लोग खुद भी बाजारों और कूचों में तमाशे करते फिरते थे और लोगों को आनंदित करते थे। यह पता लगते ही कि नक्काल और भांड किसी बाजार में घूम रहे हैं, लोगों की भीड़ उनके गिर्द इकट्ठी हो जाती है। भौड और नक्काल दिल्ली के प्राचीन सामाजिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग थे। चांदनी चौक में तो ख़ास तौर पर शहर के चुने हुए नक्काल और मसखरे जमा हो जाते थे और जगह-जगह अपनी दुकान सजाकर दर्शकों का मनोरंजन करते थे।

मुगलकाल से पहले भी दिल्ली में भांड और नक्काल थे, मगर उस काल की पुस्तकों में उनका विस्तार से उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा मालूम होता है कि उन्हें इतना अहम नहीं समझा गया कि उनके बारे में विस्तार से कुछ बताया जाता। मगर जलालुद्दीन ख़िलजी के समय की एक घटना विभिन्न यात्रा-वृत्तान्तों और पुस्तकों में मिलती है। कहते हैं कि एक शाम को भांड और नक्काल दिल्ली की गलियों और सड़कों पर जलालुद्दीन ख़िलजी का मजाक उड़ाते फिर रहे थे। जलालुद्दीन खिलजी बड़ा कमज़ोर शासक था और उससे ज्यादा नरमी बरतने वाला बादशाह शायद इतिहास में नहीं हुआ।

इसलिए नक्कालों को उसका उपहास करने का साहस हुआ। लेकिन सुलतान के पहरेदार ने उन सबको गिरफ्तार कर लिया और बादशाह के हुजूर में पेश किया। बादशाह जितना भी नरम और कमजोर हो, आखिर बादशाह होता है और कोई भी हुक्म दे सकता है। इसलिए ये नक्काल इस डर से कांप रहे थे कि उन्हें बादशाह की बेइज्जती करने के जुर्म में फांसी पर लटका दिया जाएगा। उनमें से एक नक्काल बादशाह के भेष में था और दूसरे नक्काल तरह-तरह के हास्यास्पद लिबास पहने बादशाह के दरबारी बने हुए थे।

जब जलालुद्दीन ख़िलजी ने अपने पहरेदारों से उनका अपराध पूछा तो एक ने बताया कि किस तरह ये नक्काल और भांड सड़कों पर लोगों की भीड़ के सामने बादशाह और उनके दरबारियों के खिलाफ अशोभनीय शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। बादशाह ने यह सुनकर उन नक्कालों को हुक्म दिया कि वे उसके सामने वह सब दुबारा करके दिखाएं। नक्काल यह सुनकर और भी घबरा गए, क्योंकि बादशाह के सामने उनका ही मजाक उड़ाना बड़े दिल-गुरवे का काम था। मगर जब बादशाह का हुक्म सख्ती से दोहराया गया तो उन्होंने वहीं ‘दरबार’ लगाया और ‘दरबारियों ने जो बादशाह से असंतुष्ट थे, बादशाह के खिलाफ़ खूब जहर उगला।

जलालुद्दीन खिलजी उस तमाम तमाशे से इतना खुश हुआ कि उसने नक्कालों को सजा देने की बजाय उन्हें सोने की अशरफियां इनाम में दीं। बादशाह ने अपने पहरेदारों से भी कहा कि ये लोग नक्काल और भांड हैं और नक्काली इनका पेशा है। जिससे वे लोगों को आनंदित करते हैं। यह नाली भिखारी से लेकर बादशाह तक किसी की भी हो सकती है। उनके अमल से किसी का उपहास और दिल दुखाना अभीष्ट नहीं है।

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