1857 की क्रांति: ब्रितानिया हुकूमत द्वारा अवध पर कब्जे के बाद मुगलिया सल्तनत भी सांसत में आ गई। मुगलों के और उनके दरबार के ख़त्म हो जाने के ख्याल से ही पूरी दिल्ली पर गम के बादल छा गए थे। शहर के सब लोगों की खुशहाली और संरक्षण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दरबार से जुड़ा था। मुग़ल हुकूमत के ख़त्म हो जाने पर बहुत से लोगों के बेरोज़गार हो जाने का अंदेशा था। सब शाही अफसर, दरबारी, जौहरी और चांदी के कारीगर, खानसामां, पालकीबरदार, ख़्वाजासरा और पहरेदार, गवैये और नाचने वालियां, किसी को भी अंग्रेज़ी राज में नौकरी नहीं मिल सकती थी, जिसके अफसर दिल्ली से डेढ़ सौ मील दूर आगरे में थे।

दरबारी शायरों के लिए भी यह बहुत बुरी खबर थी। 23 फ़रवरी 1856 को ग़ालिब लिखते हैं, “गो मैं अवध और उसके हालात से अजनबी हूं लेकिन इस सल्तनत की तबाही पर मुझे बहुत दुख है और कोई हिंदुस्तानी जो इंसाफ के अहसास से बेख़बर नहीं होगा वह उसको पूरी तरह ज़रूर महसूस करेगा। ज़फ़र को अवध के नवाब से कुछ गुज़ारा मिलता था जो फरवरी में सल्तनत के छिनने के बाद ख़त्म हो गया। और फिर उनके शागिर्द मिर्ज़ा फखरू की मौत के बाद जुलाई में उनकी आमदनी और भी कम हो गई। वह एक दोस्त को 27 जुलाई 1856 को लिखते हैं:

“तुमको याद रहे कि वलीअहद के मरने से मुझ पर बड़ी मुसीबत आई। बस अब मुझको इस सल्तनत से ताल्लुक बादशाह के दम तक है। ख़ुदा जाने कौन वलीअहद होगा। मेरा कुदरशनास मर गया अब मुझको कौन पहचानेगा। अपने परवरदिगार पर तकिया किए हुए बैठा हूँ। सरेदस्त यह नुकसान कि वह जैनुल आबेदीन के दोनों बेटों (जिनको गालिब पाल रहे थे) को मेवा खाने के दस रुपए महीने देते थे। अब वह कौन देगा।

गालिब समेत बहुत से शायर ऐशपरस्ती और अपनी अहमियत के अहसास का शिकार थे। लेकिन उनके पास कोई आमदनी का जरिया नहीं था जिससे वह उनको पूरा कर सकते। उनकी आमदनी जो हमेशा से कम थी उस वाकए से और घट गई जब उन्होंने अपनी इज़्ज़त के घमंड में दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी के प्रोफ़ेसर बनने के मौके को ठुकरा दिया। गालिब पालकी में सवार होकर दिल्ली कॉलेज पहुंचे जहां उनको इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लेकिन दरवाज़े तक पहुंचकर उन्होंने उतरने से इंकार कर दिया कि “जब तक कॉलेज के सेक्रेट्री थॉमासन साहब खुद आकर उनका स्वागत नहीं करेंगे वह अंदर दाखिल नहीं हो सकते, जैसा उनके रुत्वे के लिहाज़ से मुनासिब था। काफी देर बहस के बाद थॉमासन बाहर आए और उनको समझाया कि बाकायदा स्वागत करना गवर्नर के दरबार के लिए तो हो सकता है, लेकिन इन हालात में नहीं जब वह नौकरी के उम्मीदवार की हैसियत से आए। ग़ालिब ने जवाब दिया, “मैंने सरकारी नौकरी करना इसलिए मंजूर किया था कि इससे मेरी इज़्ज़त और ज़्यादा बढ़ेगी, इसलिए नहीं कि वह घट जाए।” इस पर थॉमसन ने कहा, “लेकिन मैं सरकारी कायदे का पाबंद हूं।” “तब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मुझे माफ फरमाएंगे” कहते हुए गालिब वहां से वापस चले आए।”

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