1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर को निर्वासन में रंगून जाना पड़ा। इस दौरान दिल्ली का क्या हाल था, इसे मिर्जा गालिब ने बखूबी बयां किया। गालिब ने लिखा “यहां ऐसा लगता है जैसे पूरे शहर को ढहाया जा रहा है। कुछ सबसे बड़े और मशहूर बाजार जो अपने आपमें पूरे-पूरे शहरों जैसे थे-खास बाजार, उर्दू बाजार, खानम का बाजार-अब पता भी नहीं कि कहां थे। मकानों व दुकानों के मालिक भी नहीं बता सकते कि हमारा मकान कहां था और दुकान कहां थी? यहां खाना महंगा है और मौत सस्ती। अनाज इतना कीमती है, जैसे उसका हर दाना एक फल हो।”
ग़ालिब की यह तस्वीर उस प्लान की एक संक्षिप्त सी झलक है, जो लाहौर क्रॉनिकल ने सुझाई थी कि दिल्ली को हारी हुई बगावत का केंद्र होने की सजा में बिल्कुल ढहा दिया जाए। इस प्लान के बहुत से शक्तिशाली लोग समर्थक थे, हिंदुस्तान में भी और लंदन में भी। जिनमें से एक, लॉर्ड पामर्सटन ने तो यहां तक लिखा कि दिल्ली को हिंदुस्तान के नक़्शे से मिटा देना चाहिए। “हर वह सभ्य इमारत जिसका इस्लामी परंपरा से जरा सा भी संबंध है, उसे बिना प्राचीनता या कलात्मकता का सम्मान किए ज़मीन पर ढहा देना चाहिए।” लॉर्ड कैनिंग शुरू में तो इस सुझाव का काफी हामी था मगर आखिर में उसे हिचकिचाते हुए इससे बाज रहना पड़ा। उसे ऐसा करने से रोकने वाला शख्स था जॉन लॉरेंस।
लॉरेंस ने अपनी नौकरी के शुरू में बहुत साल दिल्ली में गुज़ारे थे, जब वह सर थॉमस मैटकाफ का मातहत था, और वह मुगल राजधानी को पसंद करने लगा था। पंजाब के चीफ कमिश्नर की हैसियत से उसने भी औरों की तरह 1857 में अंग्रेजों की फतह में पूरी मदद की। इसलिए वह ऐसी स्थिति में था कि अपने साथियों से उनके सामूहिक विनाश और कानूनी कत्ले-आम के प्लान के खिलाफ बहस कर सकता था, जो अब भी चारों तरफ न्यायोचित प्रतिशोध के नाम पर जारी था।
जब 1858 में दिल्ली प्रशासन पंजाब सरकार के सुपुर्द कर दिया गया, तो लॉरेंस का सबसे पहला काम था थियो मैटकाफ को लंबी छुट्टी पर इंग्लैंड भिजवाना। इसमें वह 2 मार्च 1858 को कामयाब हुआ, जब उसने सीधे कलकत्ता में कैनिंग से दर्खास्त की और उनको बताया कि थियो पर ‘बड़े पैमाने पर कत्ले-आम’ करने का इल्जाम है। फिर अप्रैल तक लॉरेंस ने रिपोर्ट किया कि “मैंने विभिन्न सिविल अफसरों को अपनी मर्जी और खुशी से लोगों को फांसी चढ़ाने से रोक दिया और एक कमीशन नियुक्त किया। तबसे हालात बहुत बेहतर हुए हैं और हिंदुस्तानियों में फिर से भरोसा पैदा हो रहा है। मैटकाफ् का दिल्ली में इतना ताकतवर होना बहुत बदकिस्मती की बात थी। उससे बहुत नुकसान हुआ। बहरहाल अब वह घर वापस चला गया है।”
उसी खत में लॉरेंस ने यह भी बयान किया कि किस तरह अब वह कोशिश कर रहे हैं कि उन लोगों को आम माफी दे दी जाए जिन्होंने खुद किसी अंग्रेज़ का कत्ल नहीं किया था। इस ख्याल को उसने बाद में कैनिंग कि सामने रखा। उसने कहा कि कुछ अंग्रेज़ इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं जैसे वह हिंदुस्तानियों को ‘जड़ से उखाड़ देने की लड़ाई’ कर रहे हैं। उसने मशवरा दिया कि इसके बजाय सब लोगों को आम माफी दे दी जाए क्योंकि ‘अगर सब क्रांतिकारियों को एक अलग फेहरिस्त में रखा गया तो वह आपस में मिल जाएंगे और मरते दम तक विरोध करते रहेंगे’ । लॉरेंस की इस योजना के एक अप्रत्याशित समर्थक डिजरायली साबित हुए जो बगावत के नतीजे में अंग्रेजों की खून की प्यास देखकर दंग रह गए। उन्होंने ब्रिटिश संसद में कहा, “मैं जुल्म का बदला जुल्म से लेने के खिलाफ आपत्ति जताता हूं। मैंने ऐसी-ऐसी बातें सुनी हैं और लिखी देखी हैं जिससे मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि बजाय जीजस के नाम के सामने झुकने के हम मोलाक की पूजा को फिर से शुरू करना चाहते हैं। “