1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर को बर्मा भेज दिया गया। इधर दिल्ली में हालात अभी भी नहीं सुधरे थे। ब्रितानिया हुकूमत के पदाधिकारी दिल्ली को तहस नहस करना चाहते थे। विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि लाहौर क्रॉनिकल ने तो सुझाया कि दिल्ली को हारी हुई बगावत का केंद्र होने की सजा में बिल्कुल ढहा दिया जाए। इस प्लान के बहुत से शक्तिशाली लोग समर्थक थे, हिंदुस्तान में भी और लंदन में भी। जिनमें से एक लॉर्ड पामर्सटन ने तो यहां तक लिखा कि दिल्ली को हिंदुस्तान के नक्शे से मिटा देना चाहिए।

लॉर्ड कैनिंग शुरू में तो इस सुझाव का काफी हामी था मगर आखिर में उसे हिचकिचाते हुए इससे दूर रहना पड़ा। उसे ऐसा करने से रोकने वाला शख्स था जॉन लॉरेंस।

लॉरेंस ने अपनी नौकरी के शुरू में बहुत साल दिल्ली में गुजारे थे, जब वह सर थॉमस मैटकाफ का मातहत था, और वह मुगल राजधानी को पसंद करने लगा था। पंजाब के चीफ कमिश्नर की हैसियत से उसने भी औरों की तरह 1857 में अंग्रेजों की फतह में पूरी मदद की। इसलिए वह ऐसी स्थिति में था कि अपने साथियों से उनके सामूहिक विनाश और कानूनी कत्ले-आम के प्लान के खिलाफ बहस कर सकता था, जो अब भी चारों तरफ न्यायोचित प्रतिशोध के नाम पर जारी था।

जब 1858 में दिल्ली प्रशासन पंजाब सरकार के सुपुर्द कर दिया गया, तो लॉरेंस का सबसे पहला काम था थियो मैटकाफ को लंबी छुट्टी पर इंग्लैंड भिजवाना। इसमें वह 2 मार्च 1858 को कामयाब हुआ, जब उसने सीधे कलकत्ता में कैनिंग से दर्खास्त की और उनको बताया कि थियो पर ‘बड़े पैमाने पर कत्ले-आम’ करने का इल्जाम है। फिर अप्रैल तक लॉरेंस ने रिपोर्ट किया कि “मैंने विभिन्न सिविल अफसरों को अपनी मर्जी और खुशी से लोगों को फांसी चढ़ाने से रोक दिया और एक कमीशन नियुक्त किया। तबसे हालात बहुत बेहतर हुए हैं और हिंदुस्तानियों में फिर से भरोसा पैदा हो रहा है। मैटकाफ् का दिल्ली में इतना ताकतवर होना बहुत बदकिस्मती की बात थी। उससे बहुत नुकसान हुआ। बहरहाल अब वह घर वापस चला गया है।”

उसी खत में लॉरेंस ने यह भी बयान किया कि किस तरह अब वह कोशिश कर रहे हैं कि उन लोगों को आम माफी दे दी जाए जिन्होंने खुद किसी अंग्रेज का कत्ल नहीं किया था। इस ख्याल को उसने बाद में कैनिंग कि सामने रखा। उसने कहा कि कुछ अंग्रेज इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं जैसे वह हिंदुस्तानियों को ‘जड़ से उखाड़ देने की लड़ाई’ कर रहे हैं। उसने मशवरा दिया कि इसके बजाय सब लोगों को आम माफी दे दी जाए क्योंकि ‘अगर सब क्रांतिकारियों  को एक अलग फेहरिस्त में रखा गया तो वह आपस में मिल जाएंगे और मरते दम तक विरोध करते रहेंगे’। लॉरेंस की इस योजना के एक अप्रत्याशित समर्थक डिजरायली साबित हुए जो बगावत के नतीजे में अंग्रेजों की खून की प्यास देखकर दंग रह गए। उन्होंने ब्रिटिश संसद में कहा, “मैं जुल्म का बदला जुल्म से लेने के खिलाफ आपत्ति जताता हूं। मैंने ऐसी-ऐसी बातें सुनी हैं और लिखी देखी हैं जिससे मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि बजाय जीजस के नाम के सामने झुकने के हम मोलाक की पूजा को फिर से शुरू करना चाहते हैं। “

कुछ दिन में यह ‘आम माफी’ का ख्याल सरकारी नीति बन गया। और एक नवंबर 1858 को मलिका विक्टोरिया के नाम से इसका ऐलान हो गया और उसी दौरान हिंदुस्तान में बेहतर हुकूमत के एक्ट के तहत ब्रिटिश बादशाहत ने ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत की सारी जिम्मेदारियां खुद अंजाम देने का फैसला किया और उसके 24,000 सिपाहियों को ब्रिटिश आर्मी में भर्ती कर लिया। अगर हिंदुस्तान ने अपने तीन सौ साल हुकूमत करने वाले मुग़लों को खोया था, तो अब कम से कम उसे एक सही तरीके से सरकार चलाती हुई कानूनी हुकूमत मिल गई, बजाय एक लालची बहुराष्ट्रीय कंपनी के जो कम से कम आंशिक रूप से अपने शेयरधारकों के फायदे के लिए काम कर रही थी (कंपनी का जो कुछ बचा था, वह भी ईस्ट इंडिया स्टॉक डिविडेंड रिडेंशन एक्ट के प्रभावी होने के साथ 1 जनवरी 1874 को खत्म हो गया)।

दिल्ली को बचाने और लोगों को घर से निकालने से रोकने के लिए ज़्यादा लंबी कोशिश करनी पड़ी। 1863 तक भी, सॉन्डर्स की जगह जो दिल्ली का कमिश्नर आया था, वह यह बहस कर रहा था कि गदर में हिस्सा लेकर ‘बागी शहर दिल्ली के लोगों ने एक समूह के रूप में अपने तमाम अधिकार खो दिए हैं… हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली के शहरियों ने क्रांतिकारियों  का पूरी तरह साथ दिया था’।

बहरहाल लॉरेंस ने अपना प्रभाव इस्तेमाल करके दिल्ली के ढहाये जाने की योजना को बड़ी हद तक कम करवा दिया और यह दलील पेश की कि दिल्ली ‘एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है और उसे हमारे कब्ज़े में रहना चाहिए’। उसने यह भी कहा जो उस जमाने के लोगों में प्रचलित नहीं था कि ‘जो कुछ हुआ उसके लिए हम भी उतने ही कुसूरवार हैं, जितने वह लोग हैं। मैंने अभी तक न तो ऐसा कुछ देखा है और न सुना है जिससे मुझे यह यकीन आए कि यह साजिश फौज के अलावा कहीं मौजूद थी, और उसमें भी हम यकीन से नहीं कह सकते कि यह वाकई साजिश थी… फौज के लोग एक लंबे अर्से से नाखुश थे’।

कैनिंग दिल्ली की दीवारों और मोर्चों को तोड़ने के आदेश दे चुका था, लेकिन लॉरेंस ने यह कहकर आदेश रद्द करा दिए कि दिल्ली में इतना बारूद नहीं है, जो इतने मीलों की दीवारों को तोड़ सके। 1859 के आखिर तक, कैनिंग इस पर तैयार हो गया कि सिर्फ वह तोड़ा जाए जो किले और शहर को आसानी से सुरक्षित बना सके। 1863 तक, चांदनी चौक के पूर्वी आधे हिस्से को दरीबा तक तोड़ने का प्लान भी रोक दिया गया। 27 फिर भी शहर के काफी बड़े-बड़े हिस्से, खासतौर से किले के आसपास, साफ कर दिए गए जिसके बारे में ग़ालिब ने हिंदुस्तान भर में अपने दोस्तों को अपने गमगीन खतों में लिखकर भेजा, “परसों मैं सवार होकर जामा मस्जिद से होता हुआ राजघाट दरवाज़े को चला।

जामा मस्जिद से राजघाट दरवाज़े तक बिला मुवालगा एक सहरा सा बन गया है। ईटों के ढेर जो पड़े हैं, वह उठ जाएं तो हू का आलम साफ हो जाए। यहां तक कि राजघाट का दरवाजा बंद हो गया है। फसील के कंगूरे खुले रह गए हैं, बाकी सब हट गया है। अब लोहे की सड़क के वास्ते कलकत्ता दरवाज़े से काबुली दरवाज़े तक मैदान हो गया है। पंजाबी कटरा, धोबीवाड़ा, रामजी गंज, सआदत खां का कटरा, मुबारक बेगम (जनरल ऑक्टरलोनी की विधवा) की हवेली और साहब राम की हवेली और बाग, रामजी दास गोदाम वाले के मकान-इनमें से किसी का पता नहीं चलता। मुख्तसर यह कि शहर रेगिस्तान बन गया है।

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