जायरीन हजरत निजामुद्दीन औलिया के उर्स का इंतजार करतेे हैं। निजामुददीन बस्ती का दीदार किया। बस्ती गंगा- जमुनी तहजीब की मिसाल है। एक बार उर्स में जानेे का मौका मिला था। उस समय आर्टिकल लिखा था, जिसे अब साझा कर रहा हूं। इस लेख मं आपको निजामुद्दीन बस्ती एवं यहां स्थित स्मारकों, मकबरों के इतिहास से रूबरू कराएंगे।


उर्स में कव्वाली से इबादत

दरगाह के पदाधिकारी कहते हैं कि उर्स किसी सूफी संत की पुण्यतिथि पर उसकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले उत्सव को कहते हैं। किसी सूफी संत की मृत्यु को विसाल कहा जाता है जिसका अर्थ प्रेमियों का मिलाप होता है और उनकी बरसी को सालगिरह के रूप में मनाया जाता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था। वे चिश्ती घराने के चौथे सूफी संत थे। 92 साल की उम्र में सन 1325 में उनका निधन हो गया। उनकी याद में निजामुद्दीन दरगाह का निर्माण कराया गया। निजामुद्दीन बस्ती का असली नाम गयासपुर है। 13वीं सदी में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया यहां आकर बस गए। तब से यह बस्ती निजामुद्दीन के नाम से मशहूर हो गई। उर्स के दौरान बस्ती निजामुद्दीन की गलियां सूफी कव्वालियों से सराबोर रहती हैं। बृहस्पतिवार को सहारनपुर के जावेद हुसैन ने समां बांध दिया।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे निजाम..

कुं फाया फूं..

आज रंग है री माई..जैसे कव्वाली गूंजती रही। यहां रात भर कव्वाली गायी जाती है। दरअसल, यह सिर्फ कव्वाली नहीं खुदा की इबादत का तरीका है। कहा जाता है कि संगीत की इस साधना से खुदा तरक्की और अमन देता है। यही वजह है कि पूरी रात लोग कव्वालों को दान भी देते हैं।

हजरत निजामुद्दीन औलिया

हजरत निजामुद्दीन औलिया दिल्ली के सबसे प्रसिद्ध सूफी संत है। सूफी परंपरा आज भी दिल्ली की गलियों में गूंजती है। दरगाह पर सूफी की भक्ति में लीन जायरीन मिलते हैं। सूफी लफ्ज की उत्पत्ति के बारे में अपनी किताब कंटेम्परेरी व‌र्ल्ड आफ सूफीज्म में सईद मनल शाह अलकादरी लिखते हैं कि सूफी लफ्ज अरबी और फारसी के कुल आठ लफ्जों में से किसी एक से बना है।

1-सफा- मतलब दिल की सफाई।

2-सफा अव्वल-पहली पंक्ति में बैठने वाले भक्त

3-बनू सफा-अरब की एक घुमंतू जाति बेडॉइन।

4-अहल-ए-सफा-पैगंबर के समय जो लोग मस्जिदों में भक्ति कार्य करते थे।

5-सुफना-एक विशेष प्रकार की सब्जी।

6-सफावत-अल-किफा- गर्दन तक आती हुई जुल्फों की लट।

7- सोफिया-यूनानी लफ्ज जिससे फलसफा बना।

8- सुफ-माने ऊन। बाद में सूफी-अल-रुधाबरी ने कहा-जो ऊन पहने और दिल साफ रखे वह सूफी है।

हजरत निजामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिलाह के सूफी हुए जिन्हें ‘महबूब-ए-इलाही’ भी कहा गया। औलिया ने अपने 60 साल के जीवन में दिल्ली की रियासत को तीन सल्तनतों गुलाम, खिलजी और तुगलक वंश के हाथों में देखा। औलिया कभी किसी के दरबार में नहीं गए पर उनका प्रभाव किसी सुल्तान से कम नहीं था। उनका सूफीवाद दिल्ली के लोगों के दिल में बस रहा था। निजामुद्दीन दरगाह के प्रमुख फरीद निजामी कहते हैं कि सूफीवाद का सिर्फ एक ही सिद्धांत है – इंसान चाहे किसी भी मजहब, जाति या रंग का हो, सभी की सेवा करना। सूफी एक बात मानते हैं – ‘अल खल्क-औ-अयालुल्लाह.’ माने सब खुदा के बंदे हैं और खुदा से इश्क तभी है जब उसके अयल यानी बंदों से है। अल बरानी ने लिखा है कि निजामुद्दीन औलिया का समाज पर इतना असर था कि उनके कहने से दिल्ली में अपराध कम हो गए थे। उन्होंने हमेशा माना कि कयामत के दिन यह हिसाब जरूर होगा कि तुमने अपनी रोजी कैसे कमाई। अगर गलत रास्ता इख्तियार किया है, तो खुदा सजा जरूर देगा।

औलिया की खानकाह

निजामुद्दीन बस्ती में औलिया की खानकाह है।। इसके बनने के पीछे एक दिलचस्प किस्सा है, जिसे राना साफवी अपनी पुस्तक द फारगटन सिटी आफ दिल्ली में लिखती है। कहती हैं-हजरत निजामुद्दीन जब गयासपुर में रहने लगे तो उन्हें मानने वाले उनके रहने के लिए खानकाह बनाने की कोशिश किए लेकिन उन्होंने ये कहकर मना कर दिया कि यहां जो भी बनेगा वह सर्वाइव नहीं करेगा। इस पर इमद-उल-मुल्क-जियाउद्दीन ने बड़ी आत्मीयता से उनसे कहा कि वो अपना जीवन कुर्बान करने के लिए तैयार है लेकिन खानकाह बनना चाहिए। इस पर औलिया ने उन्हें एक महीने के अंदर खानकाह बनाने को कहा। इस दौरान वो किलोकरी में जाकर रहे। राना साफवी कहती हैं कि यही नहीं एक समय तो ऐसा भी आया जब गयासपुर में खाने की कमी हो गई थी। जलालुद्दीन खिलजी ने खानकाह के देखरेख का आग्रह किया। क्यों कि औलिया सत्ता और शक्ति से दूर रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने ठुकरा दिया।

मिर्जा गालिब का मकबरा

निजामुद्दीन दरगाह के पास ही मिर्जा गालिब का मकबरा है। मिर्जा गालिब की मौत 15 फरवरी 1869 में हुई थी। गालिब के मकबरे पर लिखा है-

य हययू या कयूम

रश्क ए उरफी वा फकर ए तालिब मूर्द

असदुल्लाह खान गालिब मुर्द।।

राना साफवी अपनी किताब द फॉरगटन सिटी आफ दिल्ली में लिखती हैं कि मिर्जा गालिब एक बार 1277 में बीमार पड़े। तबियत बिगड़ती देख उन्होंने गालिब मूर्द(गालिब डाई) नाम से पत्र भी लिख दिया था। हालांकि वो बहुत जल्द ठीक हो गए। मिर्जा गालिब ने ही लिखा है कि–

हुए मर के हम जो रूसवा

हुए क्यों ना गर्ग ए दरया

ना कभी जनाजा उठा

ना कभी मजार होता।।

गालिब सिर्फ शायर नहीं थे। बल्कि वो दिल्ली के इतिहास के साक्षी रहे हैं। 1857 स्वतंत्रता संग्राम उनके खतूतों के जरिए समझा जा सकता है। गालिब से पहले और उनके बाद कौन लिख पाया ऐसा। कहा जाता है कि इसी दौर में उनके सात बच्चे हुए, लेकिन उनमें से कोई भी जिंदा नहीं रहा सका। इस गम से उबरने के लिए उन्होंने शराब, शायरी का दामन थाम लिया। हालांकि गम और अभाव के बीच भी मिर्जा गालिब, जो रचते उसका कोई जोड़ न होता। वह अपने बारे में खुद कहा करते थे-

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां और..

निजामुद्दीन बस्ती में गालिब के मकबरे पर आए अनवर कहते हैं कि इतिहास को देखें तो मिर्जा गालिब अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार के प्रमुख शायरों में से एक थे। पर मुगलिया सल्तनत का वह अखिरी दौर था, खुद में इतना जर्जर और बेजार कि गालिब को सहारा क्या मिलता? उनकी माली हालत में कोई बहुत इजाफा न हुआ।

मत पूछ कि क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे,

तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे..

हजरत अमीर खुसरो की दरगाह

बस्ती में अमीर खुसरो की दरगाह पर जायरीनों के बीच ऐसे कई दिलचस्प किस्से हैं जो दिल में श्रद्धा का भाव पैदा करते हैं। ये किस्से साल दर साल आस्था की डोर मजबूत कर रहे हैं। अमीर खुसरो का जन्म सन 1253 में हुआ था। कहते हैं बचपन में एक बार इनके पिता इन्हें ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए जो कि उन दिनों के जाने माने सूफी संत थे। तब इनके उत्सुकता वश जानना चाहा कि वे यहां क्यों लाए गए हैं? तब पिता ने कहा कि तुम इनके मुरीद बनोगे और यहीं अपनी तालीम हासिल करोगे।

उन्होंने पूछा – मुरीद क्या होता है?

उत्तर मिला – मुरीद होता है, इरादा करने वाला। ज्ञान प्राप्त करने का इरादा करने वाला।

खुसरो ने मना कर दिया कि उसे नहीं बनना किसीका मुरीद और वे दरवाजे पर ही बैठ गए, उनके पिता अन्दर चले गए। बैठे-बैठे इन्होंने सोचा कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अगर ऐसे ही पहुंचे हुए हैं तो वे अन्दर बैठे-बैठे ही मेरी बात समझ जाएंगे, जो मैं सोच रहा हूं। और उन्होंने मन ही मन संत से पूछा कि – मैं अन्दर आऊं या बाहर से ही लौट जाऊं?

तभी अन्दर से औलिया का सेवक हाजिर हुआ और उसने इनसे कहा कि -ख्वाजा साहब ने कहलवाया है कि जो तुम अपने दिल में मुझसे पूछ रहे हो, वह मैं ने जान लिया है, और उसका जवाब यह है कि अगर तुम सच्चाई की खोज करने का इरादा लेकर आए हो तो अन्दर आ जाओ। नहीं तो अपने रास्ते वापस लौट जाओ।

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