स्वाधीनता की लड़ाई का माध्यम मुख्य रूप से हिन्दी रही

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Delhi university history: दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय और इसके हिंदी विभाग के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने लिखा है कि संविधान में हिन्दी की स्थिति को लेकर सरकार की नीति से भले ही असमंजस और अनिश्चय पैदा हुआ हो, पर कुल मिलाकर हिन्दी के नाम पर सम्भावनापूर्ण भविष्य की उम्मीदें बँध रही थीं। इसका एक कारण यह भी था कि स्वाधीनता की लड़ाई का माध्यम भारतीय भाषाएँ, मुख्य रूप से हिन्दी रही क्योंकि जनान्दोलन, जनता की भाषा में ही किया जा सकता है।

इसलिए इसमें भागीदारी करनेवाले वे नेता भी जिनकी शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई थी और जिनका रिश्ता समाज के सम्भ्रान्त वर्ग से था, अपने ‘इलीटिज़्म’ को बलाए ताक रखकर, जनता के बीच, जनता की वेशभूषा और बोली-बानी अपनाकर ही इस लड़ाई में शामिल हो सके थे। बड़े-बड़ों ने अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का चोला उतारकर एक तरफ रख दिया। स्वदेशी भाषा को अपनाने का मतलब कहीं न कहीं देशभक्ति से अनायास जुड़ गया था। किसी को हिन्दी बोलने में शर्म महसूस नहीं होती थी।

इस परिदृश्य की याद ताजा करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि उस समय दिल्ली के शैक्षिक-सांस्कृतिक माहौल पर इस परिदृश्य का गहरा प्रभाव पड़ा था।

स्वाधीनता मिलने के साथ-साथ, 1947 में अंग्रेज़ी के प्रभुत्व के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी में ऑनर्स का पाठ्यक्रम शुरू हुआ था। स्थिति उस समय भी यह थी कि बाकी विषयों की पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम से होती थी-संस्कृत की भी। फिर भी हिन्दी ऑनर्स शुरू होते ही देशभक्ति के जज्बे ने अच्छी संख्या में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को उस ओर प्रेरित किया। संस्कृत के प्रभुत्व से छुटकारा तब भी नहीं था।

एक तो हिन्दी की पढ़ाई संस्कृत-विभाग की देख-रेख में होती थी और संस्कृत विभागाध्यक्ष पं. लक्ष्मीधर शास्त्री सेंट स्टीफेंस कॉलेज से विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों का नियमन-संचालन करते थे। दूसरे, हिन्दी ऑनर्स के पाठ्यक्रम के आठ पर्चों में से संस्कृत साहित्य के दो पर्चे अनिवार्य थे। संस्कृत से मेरा सम्बन्ध विच्छेद पाँचवीं कक्षा के बाद ही हो गया था।

इसलिए जब इकोनॉमिक्स ऑनर्स छोड़कर हिन्दी में प्रवेश लेने का प्रस्ताव सहपाठी मित्रों ने किया तो सारे देशभक्तिजन्य भाषा-प्रेम के बावजूद हिम्मत जवाब देने लगी। इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में उसी वर्ष डॉ. सावित्री सिन्हा की नियुक्ति हुई थी। मिष्टभाषी हँसोड़ महिला थीं। विद्यार्थियों के बीच उनकी लोकप्रियता ने अच्छी-भली बारह लड़कियों को कोर्स के लिए राज़ी कर लिया।

परिवारों में उस समय लड़कियाँ अच्छी गृहिणियाँ होने के लिए तैयार की जाती थीं। अधिकांश अभिभावकों की रुचि उनके विषय में नहीं, बी.ए. की डिग्री में होती थी। घर में किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि मैंने अपनी गाड़ी की पटरी स्वेच्छा से ख़तरा उठाकर बदल ली। उस वैतरणी को पार करने का ब्यौरा अप्रासंगिक है। काम की बात यह है कि इस घटना से भाषा और साहित्य की दुनिया से मेरा रिश्ता जुड़ा।

विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में उस दौर (1947-50) में ऐसे बड़े नाम नहीं थे, जिनका कोई विशेष प्रभाव पड़ा हो। बस, इतना याद है कि कॉलेज के विभाग की दूसरी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का जैनेन्द्र जी से परिचय था। तपस्विनी की-सी वेशभूषा में, गरिमामयी संजीदगी में आवृत्त शीला जी अपनी कर्मठता और एक खास ढंग की नैतिक शुचिता से सामनेवाले को बहुत प्रभावित करती थीं। उन्होंने ही एक दिन जैनेन्द्र जी को आमन्त्रित करके छात्राओं से मिलवाया। याद आता है कि लाख प्रेरित करने पर भी छात्राओं में से किसी का बोल नहीं फूटा। शीला जी ही हमारी सुविधा के लिए कुछ प्रश्न करती रहीं और हम सब मन्त्रमुग्ध मूर्खाओं की तरह बैठे उत्तरों के एक-एक शब्द का परम भक्ति भाव से आचमन करते रहे।

आज यह भी याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा और हमने क्या सुना। पर यह ज़रूर याद है कि स्वराजी के से वेश में सस्वर चिन्तन की शैली में एक-एक शब्द तौल-तौल कर बोलते हुए जैनेन्द्र जी ने हम सबको अभिभूत कर लिया था। बाद में पता लगा कि शीला जी विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में चली गईं। शायद जैनेन्द्र जी से उन्हें जोड़नेवाला सूत्र कुछ ऐसी ही मानसिकता में रहा होगा।

उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय का कोई ‘कैम्पस’ नहीं था। गिने-चुने कॉलेज, वे भी बिखरे हुए। सेंट स्टीफेंस और हिन्दू कॉलेज कश्मीरी गेट में, रामजस कॉलेज दरियागंज में, तब का ‘दिल्ली’ और अब का जाकिर हुसैन कॉलेज अजमेरी गेट पर। बस, सिर्फ लड़कियों का एकमात्र कॉलेज इन्द्रप्रस्थ अपनी जगह तब से अब तक यथावत् मौजूद है-लगातार विस्तार करता हुआ। मिरांडा हाउस तो उसी साल खुला था जिस साल बी.ए. ऑनर्स की परीक्षा देकर (1950 में) हमने विश्वविद्यालय को अस्थायी रूप से अलविदा कह दी थी-चार वर्ष के लिए।

चार वर्ष बाद 1954 में जब एम.ए. की पढ़ाई करने के लिए दुबारा इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्रवेश किया, तब तक विश्वविद्यालय और शहर के साहित्यिक माहौल में बड़ा परिवर्तन आ चुका था। हिन्दी विभाग संस्कृत-विभाग की छत्रछाया से मुक्त होकर 1952 में, कलासंकाय में स्वतन्त्र विभाग हो गया था। नए-नए कॉलेज खुल गए थे। उन सबमें पूर्वी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हिन्दी के उस समय गणमान्य समझे जानेवाले अध्यक्षों की नियुक्ति हो चुकी थी।

विभाग के अध्यक्ष थे डॉ. नगेन्द्र और प्राध्यापक पद पर थे डॉ. विजयेन्द्र स्नातक और डॉ. उदयभानु सिंह। जो विद्यार्थी ऑनर्स-काल में मेरे पीछे थे, उनमें कुछ मेरी गैरहाज़िरी में एम.ए. करके मिरांडा और इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के हिन्दी विभागों में नियुक्त हो चुके थे। मेरा लौटना उनके लिए अहं स्फीति का और मेरे लिए धर्मसंकट का कारण बना। मैंने चुपचाप उनसे बचाव के लिए रामजस कॉलेज में दाखिला ले लिया। उस समय कोई बात किसी से छिपती नहीं थी। डॉ. सावित्री सिन्हा को ख़बर मिली। उन्होंने स्नेहिल भाव से तलब किया और यह आश्वस्त करके कि मेरे आत्मसम्मान की रक्षा उनका दायित्व होगा, वे मुझे वापिस लौटा लाईं। उन्होंने अपने वचन का निर्वाह किया।

कॉलेजों में जो लोग आए थे, उनमें डॉ. दशरथ ओझा (हिन्दू), डॉ. ओमप्रकाश (हंसराज), श्री भारत भूषण ‘सरोज’ (रामजस), डॉ. विशम्भरनाथ भट्ट (दिल्ली) और डॉ. कमला सांघी (मिरांडा हाउस) मुख्य थे। इनके अलावा कुछ और लोग भी थे, पर उस समय विभागों के (कॉलेज हो या विश्वविद्यालय) अध्यक्ष का बड़ा रुतबा होता था। रोटेशन लागू नहीं हुआ था। स्वयं डॉ. नगेन्द्र रीडर थे, पर रौब- रुतबा ऐसा कि उनके सामने दूसरे विषयों के अधिकांश नामी-गिरामी प्रोफ़ेसर नहीं ठहरते थे। इसका एक कारण उनकी अंग्रेज़ी साहित्य की पृष्ठभूमि, उसके बाद रेडियो की नौकरी और सबसे अधिक उनके राजनीतिक सम्बन्ध थे। अफ़वाह थी कि उनकी नियुक्ति राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के प्रयास से तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद के हस्तक्षेप से हुई थी।

डॉ. नगेन्द्र विश्वविद्यालय में आदर और आतंक, दोनों के आलंबन थे। विद्यार्थियों, सहयोगियों और अधिकारियों, सबके बीच। उन्होंने दायित्व का निर्वाह भी पूरी निष्ठा, प्रतिबद्धता और विषय के प्रति समर्पित भाव से किया। पर अपनी ‘आतंक’ वाली मुद्रा की अन्ततः उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी, वरना उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को इतनी ऊँचाई तक पहुँचाया कि वह पूरे भारत में हिन्दी विभागों के लिए लगभग मॉडल का काम करने लगा। हिन्दी विभाग की जिस अवधारणा को उन्होंने कार्यान्वित किया, उसमें सबसे बड़ी खूबी थी गैर-साम्प्रदायिक उदार दृष्टि । डॉ. नगेन्द्र के अध्यक्षता-काल में कॉलेजों की संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी गति से बढ़ी। उसी अनुपात में सैकड़ों की संख्या में प्राध्यापकों की नियुक्ति हुई।

स्वयं डॉ. नगेन्द्र की पदोन्नति 1956 में प्रोफेसर पद पर हो गई थी। वर्षों विभाग का हर तरह निर्माण उन्हीं के हाथों हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि विभाग और कॉलेजों में वे ढूँढ़ ढूँढ़कर जिन नामी विद्वानों और रचनाकारों को लाए, उन पर किसी को गर्व हो सकता था। इनमें डॉ. भरत सिंह उपाध्याय, पं. कृष्णशंकर शुक्ल, पं. कैलाश चन्द्र मिश्र और बाद में डॉ. भोलानाथ तिवारी और देवीशंकर अवस्थी जैसे विद्वानों के अलावा, रचनाकारों की लम्बी सूची थी-मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, अजित कुमार, कैलाश वाजपेयी, इन्दु जैन, स्नेहमयी चौधरी, महीप सिंह, लक्ष्मीनारायण लाल, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानन्द तिवारी के अलावा भी इस सूची में बहुत-से नाम शामिल किए जा सकते हैं।

दो बड़े नामों में, जिन्हें प्रस्ताव के बावजूद अलग-अलग कारणों से उन्होंने नहीं लाना चाहा, उनमें एक अज्ञेय थे, दूसरे नामवर सिंह। एक कारण था मोहन राकेश के साथ उनका अनुभव और दूसरा उनमें अपने मन की आशंकाएँ और अविश्वास । पर यह प्रश्न काफ़ी समय उनके मन में लटका रहा कि ऐसा करके उन्होंने सही किया या गलत? यह बात अलग है कि उन्हें अपनी गलतियाँ स्वीकार करने का अभ्यास कम ही था।

खास बात यह थी कि वे ऐसा करते समय किसी की जाति, कुल-गोत्र को सर्वथा अप्रासंगिक मानते थे। विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में उनके सहयोगियों में विभिन्न जातियों के लोग थे। यही स्थिति कॉलेजों में थी। शहर के नामी-गिरामी सभी रचनाकारों से उनका जाति-निरपेक्ष सम्बन्ध था।

पाठ्यक्रम में भी उन्होंने हिन्दी के साथ उर्दू-साहित्य को शामिल करके बनाए रखने की बहुत कोशिश की। इसी तरह ‘कम्पोज़िट कोर्स’ के नाम पर उन्होंने एक ऐसे पाठ्यक्रम की संरचना की जिसमें हिन्दी के अलावा संस्कृत और किसी एक हिन्दी-इतर भारतीय भाषा का साहित्य पढ़ाया जाता था ताकि भविष्य में कुछ विद्यार्थी तुलनात्मक अध्ययन की दिशा में अग्रसर हो सकें। तरह-तरह की व्यावहारिक बाधाओं के बाद अन्ततः ये पाठ्यक्रम बन्द हुए। जब ‘कम्पोज़िट कोर्स’ बन्द किया गया तब विभाग की अध्यक्ष खुद मैं थी।

पाठ्यक्रम लक्ष्य-भ्रष्ट हो चुका था और उसका उपयोग अंक बढ़ोतरी की दिशा में चोर दरवाज़े की तरह किया जाने लगा था। बड़ी लाचारी और तकलीफ़ के साथ मुझे यह क़दम उठाने पर विवश होना पड़ा था। उस दिन डॉ. नगेन्द्र भी बेहद दुखी होकर बड़ी देर सोच में बैठे रहे।

उनमें सामन्ती और आधुनिक प्रवृत्तियों का अजब घालमेल था। शोध उन्होंने रीतिकालीन साहित्य पर किया पर पढ़ते-पढ़ाते आधुनिक साहित्य थे। उनकी आरम्भिक आलोचना पुस्तकें आधुनिक साहित्य पर केन्द्रित थीं। उन्होंने बड़ी संख्या में आधुनिक साहित्य पर आलोचनात्मक और समीक्षात्मक लेख लिखे जो अपने समय से बहुत आगे थे। धीरे-धीरे उनकी रुचि साहित्य से ज़्यादा साहित्यशास्त्र में हो गई।

उन्होंने एक बड़ा काम यह किया कि एक तरफ़ संस्कृत की काव्यशास्त्रीय चिन्तन परम्परा के सभी मानक ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद कराके, उनकी विश्लेषणात्मक भूमिकाएँ लिखीं, दूसरी तरफ़ उन्होंने पश्चिम की क्लासिकी परम्परा के ग्रन्थों को भी इसी रूप में हिन्दी पाठकों को सुलभ कराया। यह बात अलग है कि यह प्रवृत्ति उन पर ऐसी हावी हो गई कि बाद में वे ‘नई समीक्षा’ शैली विज्ञान, काव्य बिम्ब, सौन्दर्यशास्त्र, समाजशास्त्र जैसे तमाम विषयों पर अकादमिक शैली में स्वतन्त्र पुस्तिकाएँ लिखने लगे जिनसे उनकी ख्याति में क्षति ही हुई। सच्चाई यह थी कि उनकी आधुनिकता पश्चिम और हिन्दी के रोमांटिक काव्य से आगे बढ़ने पर जवाब दे जाती थी।

प्रकृति से वे हठाग्रही थे। जो ठान लेते थे, उसी को सही मानते थे। मज़ाक में नए रचनाकार उन्हें ‘ही’ वादी आचार्य कहा करते थे। कुल मिलाकर उनका व्यक्तित्व सकारात्मक था। सारी सृष्टि के सुख-दुःख की चिन्ता करते हुए सबके प्रति संवेदनशील। बच्चे उनकी कमज़ोरी थे, चाहे जिसके हों। पर दूसरों को ‘स्पेस’ देना उनकी प्रकृति में नहीं था। जीवन के अन्तिम दशक में जब उनमें थोड़ी लचक पैदा हुई, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी।

उनका सम्पर्क शहर के राजनीतिक और सरकारी क्षेत्रों में मान्यता प्राप्त जिन रचनाकारों से था, उनके सत्संग ने भी सम्भवतः उनकी साहित्यिक अभिरुचि को एक विशेष मोड़ दिया था, जिसके कारण समसामयिक रचनाकारों को वे एक सिरे से खारिज कर देते थे। समकालीन साहित्य को वे सराह नहीं सके। इसमें कोई चतुराई या राजनीति नहीं, उनकी पसन्द की लाचारी थी।

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