दिल्ली..शहर जो कंक्रीटों के साये में पल रहा है। हर कदम इमारतों के मकडज़ाल ने दिल्ली को इस कदर अपने कब्जे में लिया है कि हवा भी टकराकर यहां दम तोड़ देती है। लेकिन ये हालत पहले नहीं थेे। बाग बगीचों की चाहत दिल्ली के दिल में बरसों से रही है। तभी तो मुगलों ने शहर के विकास के साथ सुकून की तलाश में बाग लगावाए। जहां ना केवल बादशाह खुद बल्कि मुगल बेगम, महल के कर्मचारी भी जाते थे। मुगल रानियों, बेगमों का बागों से लगाव जगजाहिर था। पेड़ों की छांव तले आराम तब शौक में शुमार था।
समय ने करवट जरूर ली है लेकिन आज भी बाग बगीचे दिल्लीवालों को भाते हैं। इन बागों में आम, अमरुद, कमरख, फालसा, जामुन, शहतूत, नीबू, संतरे जैसे रसीले पौधों की महक मात्र ही दिल को सुकून देती है। गर्मी की चुभती गर्म हवा इन पत्तियों के संपर्क में आकर ठंडी हवा के झोंकों में तब्दील हो जाती है। पेड़ों की शाखाओं पर पत्तियों की ओट में छिप कू कू करती कोयल की मधुर ध्वनि सुन भला किसके जेहन में बचपन की यादें ताजा नहीं हो जाती। बाग, पौधों और उनसे जुड़ी यादों का खजाना जिदंगी का फलसफा बन चुका है।
बागों की परंपरा
मुगलों ने दिल्ली में बाग बनवाने का जो चलन शुरू किया था वो कई मायनों में अलग था। बर्नियर लाल किला में बादशाह की अनुपस्थिति में जनाना क्वार्टर की तरफ चला गया। वह लिखता है कि प्रत्येक दरवाजे के सामने पानी बहता है। गार्डन हर जगह है। खुशबूदार पौधे लगाए गए है। सूरज की रोशनी भी इन पौधों की वजह से घरों में दाखिल नहीं होती है। उपर से फौव्वारे इसकी खूबसूरती बढ़ा देते हैं। किनारे किनारे बहते नालों मे चांदनी देखना सुखद है। माहताब बाग अथवा मून लाइट बाग का तो कहना ही क्या था।
आजादी के बाद भी दिल्ली में बाग की परंपरा रही। भारत पाकिस्तान बंटवारे के समय बड़ी संख्या में मुस्लिम परिवारों ने यहां से जाते समय अपने बाग लोगों को बेच दिए। ये बाग अब भी पुराने नाम से ही जाने जाते हैं। मसलन, हाफिज बाग, मतीन बाग, नाली वाला, ठाकुरदास, रतिराम का बाग, हीरोवाला बाग, मोटे वाला बाग, मजरुआ बाग, हजारा बाग, बनिया वाला बाग, बुलबुल बाग जैसे कई बाग हैं। इतिहासकारों की मानें तो साल 1960-65 तक बाहरी दिल्ली में सिर्फ बाग ही हुआ करते थे। बादली, हैदरपुर, नरेला भलस्वा में तो आम के ही बाग हुआ करते थे।
शालामार बाग
शालामार बाग वर्तमान शालीमार बाग (1653 ईसवी) के सीने में कई ऐतिहासिक घटनाओं के राज दफन है। यहां कुछ पुराने पेड़ भी हैं, तो कुछ रसीले फलों के बाग भी हैं। जिन्हें तलाशने के लिए नजर भी ज्यादा दौड़ानी नहीं पड़ती, रास्तों के किनारों में फलों के बाग के पेड़ों की मुस्कुराहट पर खुद नजर टिक जाती है। लोहे के चेन लगी गेट से होते हुए संकरे रास्ते उन्हीं पेड़ों के करीब ले जाती है। अमरूद और जामुन के पेड़ों पर परिंदे बेफिक्र हो कर चहकते हैं। इनकी चहचहाट भरी दुपहरी में भी सुनी जा सकती है। इतिहासकार कहते हैं कि बाग बीबी अकबराबादी ने बनवाया था। यह शाहजहां की बीबी थी। यह बगीचा कश्मीर के मुगल गार्डन की याद दिलाता है। दक्षिण पश्चिम कोने पर शीश महल औरंगजेब की ताजपोशी का गवाह रहा है। 31 जुलाई 1658 को शीश महल में औरंगजेब की ताजपोशी हुई थी। 1857 में ब्रितानिया हुकूमत और विद्रोहियों के बीच जमकर संग्राम हुआ था।
गार्डन आफ द ग्रेट मुगल में सी एम विलियर्स स्टूअर्ट ने लिखा है कि सन 1793 में लेफ्टिनेंट फ्रेंकलिन ने इस बगीचे का भ्रमण किया था। वो इसकी खूबसूरती से इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इसकी तारीफ में जी भर के कसीदे पढ़े। उन्होंने लिखा था कि बाग की खूबसूरती माशा अल्लाह है। सफेद प्लास्टर से बनी दीवारें दिल को छू लेती है। फूलों की नक्काशी हर आने वाले को पसंद आती है। हालांकि दिल्ली में ब्रिटिश हुकूमत के दखल के बाद बाग की रौनक भी जाती रही। 1803 में ब्रिटिश अधिकारी इस बाग को बतौर समर रिट्रीट के लिए प्रयोग करते थे। यानी वो यहां आकर गर्मियों में तरोताजा होते थे। बिशप हर्बर सन 1825 में जाड़ों में यहां आए थे। पार्क की दुर्दशा देख उन्होंने लिखा कि शालीमार बाग कभी लल्ला रुख की तरह गुणगान करने वाला था। लेकिन अब यह उजड़ा लगता है। इसकी रौनक गुम सी होती जा रही है।
लल्ला रूख 1817 में प्रकाशित थॉमस मूर द्वारा लिखित एक ओरिएंटल रोमांस है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी नायिका दरअसल औरंगजेब की बेटी है। सन 1857 के विद्रोह के बाद इसे बेच भी दिया गया था। उस समय इसके चार हिस्से बनाए गए थे। जिसमें से दो हिस्सों पर खेती भी शुरू कर दी गई थी। मोहम्मद साहिल ने यहां वाटर चैनल बनाया था जिसके साक्ष्य आज भी यहां दिखाई देते हैं। अंग्रेजों के जमाने में सर डेविड ऑक्टरलोनी ने अपने जीवन की आखरी सांसे यहीं ली। बाग के पास स्थित शालीमार बाग गांव वासियों का कहना है कि शालीमार बाग को पहले शालामार कहा जाता था, अब भी इन बागों के इर्दगिर्द बसे गांव का नाम शालामार ही है। इसके पीछे कई किस्से और कहानियां है। लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक शाला का अर्थ घर और मार को शायद चांद की रौशनी के साथ जोड़ा जाता है। यानी शालीमार उन स्थानों का नाम रखा जाता था जो बेहद चांद की रौशनी की तरह खूबसूरत हुआ करती थी।
रोशनआरा बाग
सिटी आफ द जिन्न में विलियम डेलरिंपल लिखते हैं कि जब शाहजहां ने अपना कोर्ट आगरा से नई दिल्ली स्थानांतरित किया तो जहांआरा बेगम ने चांदनी चौक की नींव रखी। यहां उन्होंने एक कारवांसराय भी बनवाई। जिसे 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेजों ने गिरा दिया। रोशनआरा बेगम के पास अपेक्षाकृत कम संसाधन थे। लिहाजा, इच्छा होने के बावजूद वह शहर के निर्माण के दौरान कुछ खास योगदान नहीं दे पायी। इसलिए उसने रोशनआरा बाग बनवाया। यह पुरानी दिल्ली के सब्जी मार्केट सब्जीमंडी के ठीक पीछे स्थित थी। कहते हैं जब पहली बार रोशनआरा बाग देखने पहुंची थी तो विशाल जुलूस निकला था। दिल्ली गेट से शुरू हुए जुलूस में कई जानवर थे, जिन पर सोने के आभूषण सजे थे। जानवरों के कान एवं गले में सोने चांदी के लटकन लगे थे। बाग में गुलाब के पौधों की भरमार थी। दरअसल गुलाब के पौधे मुगलों को परसियन रचनाकारों की रचनाओं के प्रतीक की याद दिलाते थे। बाग के बीचो बीच एक लंबी नहर गुजरती थी। जिसके दोनों तरफ गुलाब के फूल लगे हुए थे। यहीं पर रोशनआरा की कब्र भी बनी।
कुदसिया बाग
कुदसिया बाग 1748 में कुदसिया बेगम ने बनवाया था। वहीं भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा तैयार सन 1971-72 की रिपोर्ट के चौथे खंड के अनुसार कुदसिया बाग 1398 ईसवी में भी मौजूद था, और तैमूर लंग ने हिंडन यमुना के बीच लोनी में अपनी सेना की मोर्चा बंदी करने के बाद कुदसिया बाग के सामने ही यमुना पार कर उतरा था। कुदसिया बेगम ने बाग के कुछ हिस्से पर आलीशान कोठियां बनवाई थी। मुख्य द्वार 39 फुट ऊंचा, 74 फुट लंबा और 55 फुट चौड़ा था। महल के दोनों ओर बारह दरियां थी जिनको सुरंगों के द्वारा लाल किले से जोड़ा गया था। यमुना नदी भी पहले बाग से सटकर ही बहती थी। ब्रिटिश काल में जब सिविल लाइंस बना तो कुदसिया बाग में रईस लोगों के लिए दो टेनिस कोर्ट बनाए गए थे। यहां क्लब भी बनाया गया। 18वीं सदी में आए एक यात्री ने इसकी खूबसूरती का बखान करते हुए लिखा कि दिल्ली के अधिकतर उद्यान उपेक्षित होते जा रहे हैं लेकिन इसकी खूबसूरती बढ़ रही है। अंग्रेजों की सुरक्षा में बादशाही खानदान के वंशज यहां आराम से रह रहे है। हालांकि इसका गौरव पहले से कम हुआ है क्यों कि कुदसिया बेगम को अंधा कर दिया गया है और उनके बेटे अहमद शाह के साथ उसे भी कैद कर लिया गया है। बाग को सबसे ज्यादा क्षति 1857 की क्रांति के दौरान हुए युद्धों से हुई। ब्रितानिया कमांडर निकल्सन के नेतृत्व में 1857 में अंग्रेजों ने जब दिल्ली पर धावा बोला तो बागी सिपाहियों ने यहीं मोर्चा संभाला था।
बेगम बाग
बेगम बाग जो क्वीन गार्डन के नाम पर मशहूर था। क्वीन विक्टोरिया के नाम पर इसे क्वीन गार्डन भी कहा जाने लगा था। वर्तमान में यह पब्लिक पार्क है जो चांदनी चौक स्थित पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास स्थित है। रोशनआरा ने जिस वर्ष रोशनआरा बाग बनवाया था उससे एक साल बाद यह बाग बनवाया गया था। इसे शाहजहां की बड़ी बेटी जहांआरा ने बनवाया था।