बरनी ने विस्तार से बताया है अशोक की लाट को दिल्ली के छठे शहर में लगाने की कहानी

यह लाट महाराज अशोक (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) के उन दो पत्थर के स्तंभों में से है, जिन्हें फीरोज शाह ने 1356 ई. में (जगाधरी, जिला अंबाला से सात मील दक्षिण पश्चिम में) यमुना के किनारे खिजराबाद के निकट से और मेरठ से लाकर अपने दिल्ली के दो महलों में लगवाया था। इस लाट को दिल्ली लाने का हाल बड़ा दिलचस्प है, जिसे जिआउद्दीन बरनी ने यों बयान किया है :

‘लाट को किस तरह गिराया जाए, इस पर विचार करने के पश्चात हुक्म जारी हुए कि आसपास के जिस कदर लोग हों, वे हाजिर हो जाएं और जितने सवार तथा पैदल हों, वे भी आ जाएं। यह भी हुक्म दिया गया कि इस काम के लिए जिस प्रकार के औजारों की जरूरत हो, वे सब लेते आएं और अपने साथ सैमल की रुई के गट्टे भी लाएं। रुई के हजारों गट्टे लाट के चारों ओर बिछा दिए गए। फिर इसकी जड़ को खोदना शुरू किया गया। तब लाट उन रुई के गदैलों पर आ पड़ी, जो चारों ओर बिछे हुए थे। जब लाट गिर गई और बुनियाद को देखा गया तो पता लगा कि लाट एक चौकोर पत्थर पर टिकी हुई थी। उस पत्थर को भी निकाल लिया गया। लाट को सिर से नीचे तक जंगली घास और कच्चे चमड़े में खूब लपेटा गया, ताकि रास्ते में उसे किसी प्रकार की हानि न पहुंचे। तब इसे ले जाने के लिए एक बहुत लंबी गाड़ी बनाई गई जिसके बयालीस पहिए थे और हर पहिए में एक-एक रस्सा बांधा गया। सैकड़ों आदमियों ने मिलकर बड़ी कठिनाई से लाट को छकड़े पर चढ़ाया। फिर हजारों आदमी बहुत जोर लगाकर गाड़ी को यमुना नदी के किनारे तक घसीट लाए। नदी के किनारे बादशाह की सवारी आई। बहुत-सी बड़ी-बड़ी किश्तियां जमा हो गई। कई तो इतनी बड़ी थीं कि जिन पर पांच हजार मन से सात हजार मन गल्ला लादा जाता था और छोटी से छोटी दो हजार मन गल्ला उठा सकती थीं। लाट को बड़ी कुशलता और बुद्धिमत्ता से इन किश्तियों के बेड़े पर लादा गया और उसे फीरोजाबाद ले आए। वहां बड़ी खूबी से उसे उतारा गया और बड़ी बुद्धिमानी के साथ कुश्के (महल) तक ले गए।

उस वक्त मेरी (लेखक) जिआउद्दीन की उम्र 12 वर्ष की थी और में मीर खां का शिष्य था। लाट के महल में पहुंच जाने के बाद उसे खड़ा करने को जामा मस्जिद के बराबर एक इमारत बननी शुरू हुई, जिसको बनाने के लिए बड़े-बड़े विख्यात और नामवर कारीगर चुने गए। यह इमारत चूने पत्थर को बनाई गई। उसमें बहुत सी सीढ़ियां रखी गई। जब एक सीढ़ी बन चुकती थी. तो लाट उस पर चढ़ा दी जाती थी और इसी तरह एक-एक सीढ़ी बनती जाती थी और ऊपर चढ़ती जाती थी। लाट जब ऊपर तक पहुंच गई तो इसे खड़ा करने की तरकीब सोची गई।

बड़े-बड़े मजबूत मोटे-मोटे रस्से और चखें बनाए गए, जो 6 स्थानों पर लगाए गए। रस्सों को लाट के सिरों पर बांधा गया और रस्सों के दूसरे सिरे चर्खे पर जोड़े गए। चर्खे बहुत मजबूती से गाड़े और बांधे गए थे कि अपने जगह से जरा हिल न सकें। तब चखों के पहियों को फिराना शुरू किया गया, जिससे लाट करीब आधा गज उठ गई। बड़े-बड़े लट्टे और रुई के थैले नीचे डाल दिए गए कि कहीं लाट फिर न गिर जाए। इस प्रकार दर्जा व दर्जा लाट को ऊंचा करते रहे और कई दिनों में जाकर वह सोधी खड़ी हुई।

तब इसके चारों ओर बड़े-बड़े शहतीर लगाकर एक किस्म की पिंजरानुमा पाड़ बांधी, जिसके बीच में लाट को ले लिया। तब कहीं जाकर वह थमी और सीधी तीर की तरह खड़ी रही। किसी तरफ जरा भी झाँक न थी। चौकोर बुनियादी पत्थर भी, जिसका ऊपर जिक्र किया जा चुका है, बुनियाद में लगाया गया। जब लाट खड़ी हो गई तो उस पर दो बुर्जियां बनाई गईं और सबसे ऊपर कलस चढ़ाया गया। लाट की ऊंचाई 32 गज थी, जिसमें 8 गज तो बुनियाद में गई और 24 गज ऊपर रही। लाट के निचले भाग में बहुत रेखाएं खुदी हुई थीं। बहुत से ब्राह्मण और पुजारी रेखाओं को पढ़ने के लिए बुलाए गए, मगर कोई पढ़ न सका। कहा जाता है कि किसी एक हिंदू ने मतलब निकाला था, जो इस प्रकार था- कोई व्यक्ति अपनी जगह से हिला न सकेगा, यहां तक कि भविष्य में एक मुसलमान बादशाह होगा जिसका नाम सुलतान फीरोज होगा। ‘

1611 ई. में जब विलियम फेंक ने इस लाट को देखा तो इस पर एक चांद चढ़ा हुआ था। इसके सुनहरी कलस की ही वजह से इसका नाम ‘मीनारेजरी’ यानी सोने का स्तंभ पड़ा था। ईश्वर जाने, बिजली गिरने से या तोप के गोले लगने से ऊपर का हिस्सा कब टूट गया। मुसाफिरों और भ्रमणकर्ताओं के नाम जगह-जगह खुदे हुए हैं, जो ईसा की पहली शताब्दी से लेकर अब तक के हैं। दो बड़े लेख हैं। एक अशोक का है, जिसमें उसकी आज्ञाएं हैं, जो ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व की हैं। यह लेख पाली भाषा में है, जो उस वक्त बोली जाती थी। दूसरा लेख संस्कृत भाषा का नागरी लिपि में संवत 1220 विक्रमी (1163 ई.) का है। इसमें चौहानवंशी शाकंभरी के राजा विशालदेव की विजयों का वर्णन है, जिसने हिमालय से लेकर विंध्याचल तक के प्रदेश पर राज्य किया। पहला लेख अशोक के समस्त लेखों में बड़ा और सबसे महत्व का है। पांच लेख हैं- चार चारों ओर और एक उनके नीचे चारों ओर तक चला गया है। पहले चार चौखटों में हैं और अपने आप में संपूर्ण हैं। ये चारों शब्दशः प्रयाग, मथुरा, राघिया और दिल्ली की पहाड़ी वाले स्तंभों पर लिखे हुए हैं।

अशोक पहले विष्णु का उपासक था। फिर बौद्ध बन गया। ये लेख उसके राज्यकाल के सत्ताइसवें या अट्ठाइसवें वर्ष के समय के लिखे हुए हैं, जब उसने बौद्ध धर्म अपनाया। उसने अपने को देवानामपियदसी (देवताओं का प्यारा प्रियदर्शी) कहा है और आदेश दिया है कि सबके साथ शुद्धता और मानवता का बर्ताव करना चाहिए, पशुओं के प्रति दया भाव रखना चाहिए, उनको हिंसा कोई न करे, कोई मांस न खाए। जिन कँदियों को मृत्युदंड मिलता था, उनके लिए तीन दिन विश्राम के लिए दिए जाते थे, ताकि इस बीच वे प्रार्थना कर सकें और आत्मपरिशीलन कर सकें। सड़कों पर वृक्ष लगाने, प्रत्येक मील के अंतर पर कुआं खोदने और यात्रियों के लिए विश्रामगृह बनाने के भी आदेश हैं।

यह लाट एक ही बिनघड़े पत्थर की बनी हुई है, जिसे एक गावदुम मिस्री बनावट की इमारत पर खड़ा किया गया है। यह इमारत एक बहुत ऊंची कुर्सीदार चबूतरे पर बनी हुई है, जो तीन खंड की है। पहले खंड में बहुत-से कमरे और दालान हैं। इस इमारत की छत पर यह लाट खड़ी है। लाट एक रेतीले पत्थर का स्तंभ है, जो 42 फुट 7 इंच ऊंचा है। इसका ऊपर का भाग 35 फुट तो चिकना है और बाकी खुरदरा है। जो भाग अंदर दबा हुआ है, वह 4 फुट 1 इंच का है। ऊपर के भाग का कुतर 25.3 इंच है और सबसे नीचे का 38.8 इंच। स्तंभ के वजन का अंदाजा 729 मन है। पत्थर का रंग जर्दी लिए हुए हैं। अशोक के चारों लेख बहुत सफाई के साथ खुदे हुए हैं। ये भारत के सबसे पुराने काल के हैं, जिनका समय ईसा से तीन शताब्दी पूर्व का है। इनके अतिरिक्त दो और लेख वर्तमान लिपि में हैं। एक ढाई फुट ऊपर और दूसरा- अशोक के लेख के नीचे महाराज विशालदेव के काल का है, जिसकी तिथि विक्रम संवत 1220 (1163 ई.) दी है।

कोटले में इन दो इमारतों के अतिरिक्त और भी इमारतें हैं। एक बहुत बड़ी बावली है। यह सुरक्षित स्थानों में से है। घास लगाकर इसको बहुत सुंदर बनाया गया है। छत पर से राजघाट की समाधि पूर्व में सामने ही दिखाई देती है। यमुना तो अब बहुत दूर हट गई है, मगर उसकी जगह अब बहुत चौड़ी सड़क बन गई है। कोटले की सीमा के अंदर अब शरणार्थियों की एक बस्ती भी बसा दी गई है।

1850 ई. में ये इमारतें फीरोज शाह कोटला में मौजूद थी- 1. महल अर्थात कोटला या कुश्कं फीरोज शाह, 2. महल के दक्षिण में बहुत-सी इमारतों के खंडहरात 3. 4. 5. तीन खंडहर इमारतें, जिनमें से दो मकबरे हैं और तीसरी किसी इमारत का हिस्सा, 6 कुश्के अनवर या महदियां, 7. एक छोटी मस्जिद, 8. किसी का रिहाइशी घर. 9. कलां या काली मस्जिद, और 10. चुने की मस्जिद।

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