यह मुसलमानों की छठी दिल्ली थी, जिसे फीरोज शाह तुगलक ने 1354 ई. से 1374 ई. में बसाया। शहर बसाने में दिल्ली के पुराने शहरों का मसाला बहुतायत से लगाया गया। शहर की बुनियाद मौजा गादीपुर में एक जगह पसंद करके यमुना नदी के किनारे डाली गई। यह स्थान रावपिथौरा की दिल्ली से 10 मील था (दिल्ली दरवाजे से पांच सौ गज मथुरा रोड पर बाएं हाथ पर )। शाही महल की तामीर से इसकी शुरूआत हुई और फिर सब उमरा और अन्य लोगों ने भी अपने-अपने मकान बनाने शुरू किए।

शाही महल और किले का नाम था- कुश्के फीरोज शाह। यह शहर इतना बड़ा बसाया गया था कि इसमें निम्न बारह गांवों का क्षेत्र शामिल हो गया था- कस्बा इंदरपत, सराय शेख मलिक, सराय शेख अबूबकर तूसी, गादीपुर, खेतवाड़ा की जमीन, जाहरामट की जमीन, अंघोसी की जमीन, सराय मलिक की जमीन, अराजी मकबरा सुलताना रजिया, मौजा भार, महरौली और सुलतानपुर।

शहर में इस कदर मकान बनाए गए कि कस्बा इंदरपत से लेकर कुश्के शिकार (रिज) तक पांच कोस की दूरी में सारी जमीन मकानों से पट गई थी। इस शहर में आठ मस्जिदें और एक खास मस्जिद थी, जिनमें दस-दस हजार आदमियों के ठहरने की गुंजाइश थी। शम्स सिराज ने लिखा है कि यह शहर मौजूदा दिल्ली से दुगुना था। इंदरपत (पुराने किले) से लेकर कुरके शिकार (रिज) तक पांच कोस और यमुना नदी से हौज खास तक यह फैला हुआ था, जिसमें मौजूदा दिल्ली के मोहल्ले-बुलबुलीखाना, तुर्कमान दरवाजा, भोजला पहाड़ी भी शामिल थे। फीरोज शाह ने दिल्ली और फीरोजाबाद में एक सौ बीस सराय। बनवाई थीं।

फीरोज शाह के राज्य के 39 वर्ष कुछ ऐसे अमन के गुजरे कि दिल्ली (कुतुब) और फीरोजाबाद में यद्यपि पांच कोस का अंतर था, मगर यहां सड़क पर गाड़ियों और पैदल चलने वालों का तांता लगा रहता था। जिधर देखो, आदमी ही आदमी नजर आते थे। गाड़ियां, बहलियां, रथ, पालकियां, कहार, ऊंट, घोड़े, टट्टू- गर्ज कि हर किस्म की सवारियां सुबह से रात तक बड़ी संख्या में हर वक्त मिलती थीं। हजारों मजदूर माल ढोने का काम करते थे।

फीरोज शाह के चार महल थे, जिनके नाम मिलते हैं- 1. महल सहनगुलीना अर्थात अंगूरी महल, 2. महल छज्जा चौबीन, 3. महल बारेआम इन तीनों का अब कोई निशान नहीं है। चौथा था- कोटला फीरोज शाह । फीरोजाबाद यमुना के दाएं हाथ उस वक्त तक सबसे श्रेष्ठ शहर गिना जाता रहा, जब तक कि शेरशाह ने शेरगढ़ की बुनियाद नहीं डाली। जब तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया तो वह फीरोज शाह की दिल्ली के सदर दरवाजे के सामने उतरा था। इब्राहीम लोदी ने एक तांबे के बैल की मूर्ति को इस दरवाजे पर लगाया था, जिसे वह ग्वालियर के किले को फतह करके लाया था।

कुश्के फीरोज शाह या फीरोज शाह का कोटला यह एक किला था, जिसके खंडहर दिल्ली दरवाजे के बाहर आजाद मेडिकल कालेज के सामने की तरफ देखने में आते हैं। उस वक्त इसके गिर्द बड़ी संगीन फसील थी और गावदुम बुर्ज थे। इस फसल का एक दरवाजा ‘लाल’ नाम का अब भी मौजूद है। कोटले में तीन सुरंगें इतनी बड़ी बनी हुई थीं कि बेगमात सवारियों सहित उनमें से गुजर जाती थी। एक सुरंग किले से दरिया के किनारे तक गई है, दूसरी दो कोस लंबी कुश्के शिकार (रिज) तक चली गई है और तीसरी पांच कोस लंबी रायपिथौरा के किले तक गई है। कोटले में दो चीजें खास देखने योग्य हैं-1. अशोक की लाट, और 2. जामा मस्जिद। मस्जिद 1354 ई. में बनी थी। अमीर तैमूर ने इसको 1398 ई. में देखा था और इस मस्जिद में खुतबा पढ़ा था। उसे यह इतनी पसंद आई थी कि इसका एक नक्शा वह अपने साथ ले गया था। वह यहां से अपने साथ मेमार भी ले गया था। वहां उसने समरकंद में जाकर इसी नमूने की एक मस्जिद बनावई थी।

मस्जिद अशोक की लाट वाली इमारत के साथ ही बनी हुई है। वह पत्थर चूने की बनी हुई, और उस पर नक्काशी का काम है। मस्जिद की इमारत मिस्री इमारतों की तरह गावदुम है। इसका दरवाजा पूर्व की बजाय उत्तर की तरफ है, क्योंकि पूर्व में नदी बहती थी और दरवाजा बनाने के लिए जगह न थी। मस्जिद की दीवारें ही दीवारें बाकी हैं, छत नहीं रही। लाट वाली इमारत से यह एक पुल के द्वारा जोड़ी हुई है। मस्जिद की इमारत दोमंजिला बनी हुई है। मस्जिद ऊपर की मंजिल में है। इस मस्जिद में या इसके करीब किसी इमारत में बादशाह आलमगीर सानी को 1761 ई. में कत्ल किया गया था।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here