दशहरी, चौसा, लंगड़ा, नीलम, बादामी, तोतापरी, हापुस, सफेदा, सिंदूरा...गर्मी के मौसम दिल्ली में आयोजित विभिन्न मैंगों फेस्टिवल में इन आमों की लंबी फेहरिस्त दिल्लीवासियों के दिल में उतर जाती है। तभी तो लोग इन फेस्टिवल के बहाने ही सही जी भर के आम खाते हैं। इसे यूं ही नहीं फलों का राजा कहा जाता है। यह आम ही नहीं बल्कि खास की भी पसंद रहा है। राजा महाराजा ना केवल बड़े चाव से आम खाते थे बल्कि बड़े बड़े बगीचे लगवाते थे। मुगल शासन में बादशाहों ने कई आम के बगीचे तो लगाए ही तरबूज, खरबूज, लीची जैसे फलों का भी जमकर आनंद उठाया। ये फल भारतीय संस्कृति में इस कदर घुल मिल गया है कि बिना इसके गर्मियों की कल्पना बेमानी से लगती है। चाहे तीज त्योहार हो या फिर संस्कार स्वरूप एक दूसरे को गिफ्ट देने की परंपरा। बिना आम के व्यवहार भी अधूरा है। धार्मिक क्रिया कलापों में भी आम के फल समेत पत्तों का प्रयोग होता है। तो चलिए दिल्ली में आम के इस सफर एवं इसके दीवानों से रूबरू होते है।
 
उपहार में देने का चलन 
इतिहासकार कहते हैं कि दिल्ली का फलों खासकर आम से गहरा लगाव है। गर्मी के दिनों में दिल्लीवासी लू के थपेड़ों से बचने के लिए महरौली का रुख करते थे। बादशाह, अपने हाथी पर बैठकर चलते तो पीछे पीछे हाथ में बाल्टी एवं आम लिए लोगों का हुजूम चलता। बीच-बीच में पेड़ों की छांव में बैठकर आम खाते सफर कटता था। महरौली में जितने दिन प्रवास रहता, आम स्वाद के शौकीनों के मेन्यू में सबसे ऊपर रहता। मुगल काल में ही आम उपहार देने के चलन में भी आया। फल उपहार में देना अच्छा माना जाता था। तुजुक ए जहांगीरी के अनुसार बादशाह को अहमदाबाद तक बंगाल के संतरे और हैरात के तरबूजे भेजे जाते थे।
 
पुरानी दिल्ली में आम का नाश्ता
विलियम डेलरिंपल अपनी किताब द लास्ट मुगल में लिखते हैं कि सुबह होते ही राजघाट से निगमबोध घाट तक यमुना किनारे मंदिरों में घंटिया बजने लगती थी। शहर की चार दीवारी के अंदर दक्षिण में कश्मीरी कटरे की मस्जिद से लेकर फतेहपुरी मस्जिद, जामा मस्जिद और यमुना किनारे बनी खूबसूरत जीनतुल मस्जिद की मीनारों तक हर तरफ अजान की आवाजें बंद होते ही तोतों की तकतार, तुती की पुकार, मैना का चहचहाना, जफर के रोशनआरा बाग के अंदर आम के दरख्तों से कोयल की कूक सुनाई देती थी। इधर शहर के अंदर ऊंची हवेलियों में नौकर जगने लगते। नाश्ते का मेज लगाया जाता। हिंदूओं के घर आम या आलू पूरी खाया जाता जबकि मुसलमानों के यहां मटर शोरबा। आम यूपी से ज्यादा मंगाए जाते थे। इन्हें रात भर बाल्टी के पानी में रखा जाता था एवं सुबह सेवन किया जाता था। 
 
गालिब की आम से दिल्लगी
फलों में आम का जिक्र हो और गालिब का नाम ना आए तो बात बेमानी होगी। गालिब आम के बेहद शौकीन थे। आम की तारीफ में उन्होंने लिखा, 'बारे आमों का कुछ बयां हो जाए, खामा नख्ले रतबफिशां हो जाए।Ó उनके दोस्त दूर-दूर से उन्हें उम्दा आम भेजते थे। आफताब हुसैन हाली ने यादगार-ए-गालिब में लिखा है कि उनका एक फारसी खत है जो उन्होंने शायद कलकत्ता प्रवास के दौरान हुगली बंदरगाह के संरक्षक को लिखा था। उन्होंने लिखा, 'कुछ दिनों से खाना-पीना छोड़ रखा है। कमजोर हो गया हूं। मुझे ऐसी चीज की तलाश है जो दस्तरखान भी सजा दे और मजेदार भी हो। अक्लमंदों का कहना है कि ये दोनों खूबियां आम में पाई जाती हैं और कलकत्ता वालों का कहना है कि आम तो हुगली के बंदरगाह में ही पैदा होता है। हुगली का आम तो ऐसा है जैसे बाग से फूल टूट कर आए। मेरी ख्वाहिश और आपका उदार हृदय! जी यह चाहता है कि मौसम खत्म होते-होते आपके दिल में दो-तीन बार मेरा ख्याल आए और लालच यह कहती है कि अब इतना भी तंग करना अच्छा नहीं।
 
लाल किला और गालिब 
द लास्ट मुगल में विलियम लिखते हैं कि एक रोज बहादुर शाह जफर लाल किले के माहताब बाग में मिर्जा गालिब के साथ टहल रहे थे। गालिब बीच-बीच में आमों के पास रुकते, गौर से देखते फिर चल देते। बादशाह ने पूछा मिर्जा क्या बात है तो उन्होंने कहा कि बुजुर्ग कहते हैं दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। मैं देख रहा हूं कि कहीं मेरा भी नाम लिखा है कि नहीं। बादशाह ने उसी रोज आम की एक टोकरी उनके घर भिजवाई। गालिब कहते थे कि आम में बस दो बातें होनी चाहिए- एक तो मीठे हों और दूसरे बहुत हों। वहीं बहादुर शाह जफर आम के साथ ही संतरे के शौकीन थे। लाल किले में संतरे का बाग लगवाया था। शाम के समय अक्सर वह इसमें पैदल चलते थे। 
 
कहानी अंगूरी बाग 
पुरानी दिल्ली में माधो दास की बगीची में अंगूरी बाग की कहानी दिलचस्प है। इस बाग में मुगल अंगूर लगाए थे। इतिहासकारों की मानें तो बाग के बीचो बीच में एक 28 फीट लंबा और ढाई फीट गहरा फौव्वारा था। यहां कश्मीरी से लायी गई विशेष मिट्टी की परत भी थी। जो अंगूर के लिए मंगाई गई थी। कहते हैं कि इस बाग को शाहजहां ने बनवाया था। 
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