हकीम अजमल खां…मरीज को देखकर ही इलाज बता देते थे

हकीम अजमल खां की गिनती दिल्ली के श्रेष्ठ हकीमों में हमेशा रहेगी। उनकी याद अभी दिलों से ग़ायब नहीं हुई। बड़े गंभीर और शांत स्वभाव व्यक्ति थे, साथ ही विनोद-वृत्ति भी रखते थे। सीने में एक हमदर्द दिल रखते थे और अपने राष्ट्र और जनता के लिए उन्होंने बड़ा काम किया। चिकित्साशास्त्र में उनकी निपुणता और कमाल का जवाब नहीं था। करोलबाग़ का अजमल ख़ाँ रोड और तिब्बिया कॉलेज उनकी याद दिल्लीवालों के दिलों में हमेशा क़ायम रखेगा। वे जब लंदन गए तो एक अस्पताल को देखने भी गए। उन्होंने ऑपरेशन की मेज़ पर एक मरीज को देखा। उसके बारे में यह शक था कि इसके पेट में मछली की हड़ियाँ हैं जिन्हें एक हिन्दुस्तानी बूटी के इस्तेमाल से निकाला जा सकता है। मगर अस्पताल के सर्जन उनसे सहमत न हुए। और जब रोगी के पेट का ऑपरेशन किया गया तो अंग्रेज़ सर्जन यह देखकर हैरान रह गया कि पेट में वास्तव में मछली के काँटे थे। उनको निकालने के बाद रोगी को फ़ायदा हकीम साहब की दी हुई दवा से ही हुआ।

पुराने वक़्त में बादशाह, नवाब और राजा-महाराजा विलासिता में डूबे रहते थे और उनके हरम में भी बहुत ज़्यादा औरतें होती थीं। अपनी कामवासना की तृप्ति और अपनी शक्ति और यौवन को बनाए रखने के लिए वे कुश्तों, तिलों और भस्मों का इस्तेमाल करते थे। कुश्ते और तिले यूनानी नुस्खों पर तैयार किए जाते थे और भस्म आयुर्वेदिक पद्धति से तैयार होती थीं। कुश्तों और भस्मों से पैदा होने वाली गर्मी और ताक़त बेमिसाल होती थी और राजा-महाराजाओं और नवाबों के सत्तर- बहत्तर वर्ष की आयु में संतान हो जाती थी। कुश्तों और भस्मों की मात्रा बहुत कम होती थी और सोने-चाँदी और जवाहरात के कुश्ते और भस्म की मात्रा तो वजन में केवल दो-तीन चावल के दानों के बराबर ही होती थी।

जाड़ों में कुश्तों का सेवन करने वाले शाही व्यक्ति, नवाब और अमीर मलमल के कुरतों में रहते थे। किसी-किसी दिन तो ठंड में भी उनके चेहरे पर पसीना फूट आता था। कुश्तों का प्रभाव तत्काल होता था और देर तक बना रहता था। उन्हें हकीम अपनी देखरेख में तैयार करते थे और चूंकि उनमें दुर्लभ वस्तुएं और मूल्यवान धातुएं पड़ती थीं और तैयारी का ढंग कठिन और कष्टसाध्य था, इसलिए उनका मूल्य भी बहुत अधिक होता था। इसके अलावा चूंकि अमीर और प्रतिष्ठित लोगों को इनकी आवश्यकता होती थी इसलिए उनकी क़ीमत ज़रूरत से कहीं ज़्यादा रखी जाती थी।

कहा जाता है कि आखिरी मुगल बादशाह ने बुढ़ापे में भी अपनी जवान सूरत और जिस्म की ताक़त के लिए कुश्तों और तिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया था। कुछ शौक़ीन अमीर हकीम की हिदायत का पालन न करते हुए कुश्तों की मात्रा खुद ही बढ़ा लिया करते थे। एक महाराजा के बारे में प्रसिद्ध था कि उसने कुश्ते का सेवन इतना अधिक किया कि उसकी काम-वासना बेकाबू हो गई और वह बहुत परेशान हो गया। उसने दिल्ली के एक हकीम को जिनके बनाए हुए कुश्ते वह इस्तेमाल करता था, तार भेजकर बुलवाया और तार में स्पष्ट शब्दों में अपनी दशा सूचित कर दी। महाराज की यह बात दिल्ली में और उसकी रियासत में फैल गई और हालांकि दिल्ली के हकीम ने उनकी उत्तेजित भावनाओं पर नियंत्रण पा लिया, मगर बहुत समय तक महाराजा अपने मित्रों और दूसरे लोगों में व्यंग्य और उपहास का निशाना बना रहा।

हकीमों और वैद्यों का वह दौर अब कभी लौटकर नहीं आएगा। ये लोग अपनी कला में तो प्रवीण थे ही, सज्जनता, गंभीरता और उदारता की भी तस्वीर थे। बहुत से हकीम बड़े कवि भी थे। यों तो दिल्ली में अब भी बहुत से हकीम और वैद्य हैं और हमदर्द दवाखाना जैसी महान चिकित्सा-संस्थाएँ अभी मौजूद हैं और अनुसंधान कार्य भी सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर हो रहा है, मगर लोगों का रुझान अब आधुनिक ऐलोपैथी की तरफ़ है और देखना सिर्फ़ यह है कि चिकित्साशास्त्र की हमारी प्राचीन संस्थाएं इस तूफ़ान में भी कब तक जीवित रह सकेंगी।

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