यह महल फीरोज शाह तुगलक ने 1354 ई. में मौजूदा दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में पहाड़ी पर फीरोज शाह शहर के बाहर बनवाया था। यह उसकी शिकारगाह थी। यहां अब दो ही इमारतें खड़ी हैं- चौबुर्जी मस्जिद और पीर गैब। अमीर तैमूर, जिसने महल को लूटा, इसकी बाबत कहता है-‘एक सुंदर स्थान पहाड़ी की चोटी पर यमुना के किनारे पर बना हुआ है।’

महल की बाबत यह जिक्र आया है कि 1373 ई. में वजीर मलिक मुकबिल उर्फ खांजहां की जब मृत्यु हो गई तो उसका सबसे बड़ा लड़का जूनाशाह उसका वारिस करार पाया। 1375 ई. में बादशाह अपने सुपुत्र फतह खां की मृत्यु से, जो बड़ा होनहार था, शोक सागर में डूब गया। सिवा संतोष और शांति रखने के और कोई चारा न था। बादशाह ने फतह खां को कदम शरीफ में दफन करवाया, मगर वह इतना शोकातुर रहने लगा कि उसने राज्य के काम-काज से ध्यान ही हटा लिया।

तब उसके उमराओं और हितैषियों ने उसके पास आकर निवेदन किया कि सिवा ईश्वर की इच्छा के और कोई साधन है नहीं, इसलिए उसे हुकूमत के काम-काज की ओर ध्यान देना चाहिए। तब बादशाह ने अपने शुभचिंतकों की बात पर अमल करना शुरू किया और अपने शोक को भुलाने के लिए खेल में लगा और वह शिकारगाह बनवाई।

अशोक की दूसरी लाट को फीरोज शाह के इस महल में लगाने के लिए उसी बुद्धिमत्ता से यहां लाया गया, जिस तरह पहली लाट को लाया गया था। उसने बड़ी धूमधाम के साथ इसे महल में लगवाया। महल की इमारत के बाद उसके उमरा और अन्य धनिकों ने भी यहां चारों ओर बहुत सी इमारतें बनवाई। पीर गैब नाम की इमारत, शिकारगाह का महल बताया जाता है। इसका बहुत-सा भाग गिर चुका है। इसकी दीवारों के निशानात दिखाई देते हैं। इसके उत्तर में दोमंजिला सदर दरवाजा दिखलाई पड़ता है।

इस इमारत का नाम जंतर-मंतर भी था। यह पहाड़ी पर सबसे ऊंचे स्थान पर बनी हुई है। इसके ऊपर एक घंटा लगा हुआ था, जो शायद बजा करता था। इसमें किसी फकीर की कब्र भी है। पीर गैव के दक्षिण में थोड़ी दूर पर अशोक की दूसरी लाट है, जिसे, फीरोज शाह ने कुश्के शिकार में लगवाया था। यह कोटले वाली लाट से कोई चार मील के अंतर पर है। अठारहवीं सदी के शुरू में (शायद फर्रुखसियर के काल में) किसी वस्तु के फटने से यह लाट गिरकर पांच टुकड़े हो गई थी, जो 150 वर्ष तक वैसे ही पड़ी रही। इस कारण इसके पत्थर खुरदरे हो गए और अक्षर भी मंद पड़ गए। यह लाट 33 फुट लंबी और 3 फुट 1 इंच कुतर में है।

1838 ई. में हिंदू राजाओं ने जब फ्रेजर साहब की कोठी खरीदी (जिसमें अब अस्पताल है) तो ये पांचों टुकड़े भी खरीद लिए जो कोठी के सहन में बिखरे पड़े थे। 1867 ई. में ये जोड़कर उस जगह संगखारा के चबूतरे पर खड़े किए गए, जो पहाड़ी पर मौजूद हैं। नीचे जो लेख अंग्रेजी में लिखा हुआ है, वह इस प्रकार है- ‘महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी के पूर्व इस स्तंभ को मेरठ में लगवाया था। वहां से 1356 ई. में फीरोज शाह ले आया और उसे कुरके शिकार में इसी जगह लगवाया। 1713-19 ई. में बारूद के मैगजीन को आग लग जाने से यह गिरकर पांच टुकड़े हो गई। अंग्रेजी सरकार ने इसे 1867 ई. में ठीक करवाकर इसी जगह खड़ा करवाया। पीर गैव के पास हिंदू राजाओं की कोठी है और एक बावली है, जिसमें उतरने को पक्की सीढ़ियां बनी हैं। ये भी फीरोज शाह के जमाने की ही हैं। ‘

जहांनुमा के सामने की ओर शायद मैटकाफ हाउस के निकट से तैमूर और उसके साथियों ने 1398 ई. में यमुना पार की थी। कुछ का कहना है कि वह वजीराबाद के पास से पार हुआ था। जहांनुमा के मुगलों के कैंप पर सुलतान महमूद खां और उसके वजीर मल्लू खां ने हमला किया था, मगर उसे परास्त होना पड़ा था।

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