कोहबर गीत का एक अपना सौन्दर्य बोध है। राम और सिया वर-वधू के रूप में कोहबर में आए हुए हैं। मिथिला की नारियां उन्हें चुन-चुनकर गालियां देती हैं। इसे सुनकर जगत-विहारी राम शरमा जाते हैं।

कोहबर की सुन्दरता को देखकर ऋद्धि- सिद्धि एवं देवगण फूल बरसाते हैं और भगवान का मंगलगान करते हैं। इस गीत में एक ओर तो राम-जानकी के लोक पावन सौन्दर्य का वर्णन है दूसरी ओर उनकी बांकी-झांकी पर मोहित होती मिथिला की नारियों का भी अद्भुत वर्णन है।

यह गीत लोक पावन और मंगलमय है। प्रेम की मर्यादा कोहबर के क्षणों में टूटती है। एक चतुर सखी राम से तरह-तरह का मजाक और मनमानी करती है। इस गीत में अलौकिक ब्रह्म के लौकिक रूप का बड़ा सुन्दर वर्णन है-

कोहबर में सखी सब मंगल गाये

सखि हे, जनक दुअरिया ना

ऋद्धि-सिद्धि सुर गण फूल बरसाये

देव वधू सब नाच दिखाये।

सखि हे, जनक दुअरिया ना

एक सखी अति चतुर सयानी,

करत मजाक बहु बिध ठानी।

रघुवर से करे मनमानी,

सखि हे, जनक दुअरिया ना

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