दिल्ली के एक बिगड़े दिल रईस ने, जिसे लोग उसकी फिजूलखर्ची के कारण “नवाब साहब’ कहा करते थे, एक महफिल का आयोजन किया। उनके दोस्त शाम को ही पहुंच गए। पहले कुछ शतरंज और ताश की बाजियां हुई। फिर दीवानखाने में खाना खाकर सब लोग खुले में छत पर चढ़ गए, जहां पहले ही दरी-चांदनी बिछी हुई थीं और गावतकिए लगे हुए थे। हुक्के और पेचवान लगे हुए थे और चांदी के सदानों में पान की गिलोरियां रखी थीं।
चांदनी रात थी, नवाब साहब ने मीर कल्तू को जो मुख्तार-ए-कुल थे। इशारा किया और पहलू के कमरे से सब्ज़ रंग की पिश्वाउ पहने एक गोरी-चिट्टी हसीन औरत निकली और अपने कयामत उठाने वाले सीने पर दोनों हाथ रखकर खड़ी हो गई। महफिल पर उसने एक नजर डाली और फिर एक निहायत अदब से मुजरा किया। ओहो, यह तो मोती भांड था।
पीछे दो सारंगीवाले, एक तबलची, एक मुज़रेवाला उजली पोशाक पहने आ खड़े हुए। तबले पर थाप पड़ी, सारंगियों पर लहरा शुरू हुआ। मोती भांड ने गत भरी तो यह मालूम हुआ कि इन्द्र के अखाड़े की परी उतर आई। तीन सलामों पर मुजरा खत्म हुआ चारों तरफ से ‘सुभान अल्लाह की आवाज बुलंद हुई। मोती भांड ने तस्लीमात अर्ज की। फिर कोई एक घंटे तक कथक नृत्य के मुश्किल तोड़े सुनाए। फिर लय का विभाजन एक से सोलह तक सुनाया। अंत में तुत्कार का कमाल दिखाया।
मोती भांड वास्तव में अपनी कला में बेजोड़ था। जब उसने दर्शकों की फरमाइश पर मोर का नाच दिखाया तो उसके थिरकने पर महफ़िल लोट-पोट हो गई। नवाब साहब ने नाच खत्म होने पर उसे बुलाया और बोले, “मोती, तुम पर यह फन खत्म है। मोर का नाच दूसरे भी नाचते हैं, मगर जिस तरह से तुम नाचते हो वह और किसी के बस की बात नहीं। खास तौर से नाचते-नाचते मोर अपने पैरों को देखता है और उसकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं, इस कैफियत को जिस खूबी और सच्चाई से तुम अदा करते हो वह तुम्हारा ही हिस्सा है।” नवाब साहब ने यह कहकर एक अशरफी और चंद रुपए इनाम दिए। मोती भांड ने इनाम लेकर अदब के साथ तीन सलाम किए और हाथ जोड़कर बोला, “हुजूर की जरानिवाजी और फन की कद्रदानी है, वरना में क्या, मेरी बिसात क्या? जो कुछ हूं मैं खुद अच्छी तरह जानता हूं।” यह विनम्रता दिल्ली के कलाकारों में थी।