1880 के दशक के आरंभ में जिन अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी औरतों से शादी कर ली थी या उनका रहन-सहन अपना लिया था, उनको आश्चर्य और उपहास की नजर से देखा जाने लगा था और उन्नीसवीं सदी के मध्य में जो कंपनी के नौकर अपनी मूंछें बढ़ाते थे या मुसलमानों की तरह पगड़ी बांधते थे उनका मजाक उड़ाया जाने लगा और पजामा जो कलकत्ता और मद्रास का आम लिबास था वह अंग्रेजों के लिए सिर्फ रात को सोते वक्त पहनने का लिबास बन गया। डेल्ही गैजेट ने अपने 1856 के संपादकीय में लिखा:
“कई ऐसे अंग्रेजों की मिसालें नजर आती हैं जो कमउम्र में हिंदुस्तान आए और वक्त गुजरने के साथ बिल्कुल हिंदुस्तानी बन गए। उन्होंने देसी लोगों, खासकर मुसलमानों की संगत में उनकी आदतों और तौर-तरीकों को इस तरह अपना लिया कि उन्हें यूरोपियन सोसाइटी से कोई दिलचस्पी न रही। वह अपने दोस्त मुसलमानों में से चुनते और उन्हीं की तरह का रहन-सहन अपना लेते।
कभी खुल्लम-खुल्ला या चुपके से उनका धर्म भी कुबूल कर लेते। जो भी हो, उनको ईसाइयत से कोई लगाव नहीं रह गया था… यह अक्सर बहुत योग्यतापूर्ण लोग थे… और उनके देसी लोगों से मेलजोल रखने की वजह से कंपनी की कामयाबी का रास्ता साफ हो गया जो वह शायद खुद कभी न कर पाती।
लेकिन अब यह साफ जाहिर है कि वह वक्त गुजर चुका है। और हमको ख्याल रखना चाहिए कि अब उनकी राय पर चलने की जरूरत नहीं, चाहे वह उस समय के हालात के लिए कितने ही अहम क्यों न हों। उन लोगों का असर अब खत्म हो गया है। और उनकी तादाद घट गई है।
अब उनकी बात मानना हिंदुस्तान में शिक्षा की तरक्की में रुकावट डाल सकता है। उनकी राय हिंदुस्तानियों की अपने पुराने तरीकों पर चलते रहने में मदद करेगी जिसके नतीजे में वह अपने प्राचीन रस्मो-रिवाज की हिफाजत करने और हर नए बदलाव के विरोध पर अड़े रहेंगे……