प्रसिद्ध मृदंगाचार्य पं. अयोध्या प्रसाद (pandit Ayodhya prasad biography) का जन्म मध्य प्रदेश की दतिया रियासत में १५ अगस्त १८९१ को हुआ था। उनके पिता पं. गया प्रसाद तथा दादा कुदऊ सिंह थे। पिता स्वयं भी एक प्रतिष्ठित पखावज वादक थे। उन्होंने पखावज की प्रारंभिक शिक्षा अपने दादा कुदक सिंह के छोटे भाई से ली। उनके निधन के बाद अपने पिता से दस वर्ष की अवस्था से मृदंग की शिक्षा लेना आरंभ कर दिया।
अपने पिता के साथ वह भी रामपुर आ गए। पिता रामपुर के नवाब के राजाश्रय में थे। उनकी मृत्यु के बाद वह भी रामपुर दरबार से जुड़ गए। कुदऊ सिंह की शिष्य परंपरा के नाते इस घराने के प्रतिनिधि के रूप में उनसे काफी अपेक्षाएं की जाने लगीं।
घराने का नाम किया रोशन
एक साहसिक कर्मयोगी के रूप में उन्होंने (pandit Ayodhya prasad biography) अपने घराने की कला को संरक्षित रखते हुए विद्वत्तापूर्वक अपनी कला का प्रदर्शन किया। उनके समकालीन पखावज वादकों में ग्वालियर के पर्वत सिंह, लखनऊ के पं. सखाराम एवं भैयालालजी के शिष्य माखनलाल का बड़ा नाम था।
ऐसे पखावज वादकों के बीच रहकर उन्होंने अपने घराने का नाम रोशन किया। रामपुर दरबार के संगीतज्ञों के बीच उन्हें काफी मान-सम्मान मिला। रामपुर के नवाब बहुत बड़े संगीतानुरागी थे। वहाँ रहते हुए उन्हें अनेक उच्च कोटि के संगीतकारों को सुनने व देखने का अवसर मिला। संगीत सम्मेलनों में उच्च कोटि के गायक-वादकों के साथ कुशलतापूर्वक पखावज संगत कर तथा आकाशवाणी से कार्यक्रम प्रसारित कर उन्होंने काफी यश व कीर्ति अर्जित की।
अयोध्या प्रसाद (pandit Ayodhya prasad biography) गायक या वादक के मिजाज व भाव को शीघ्र ही परखकर उसी के अनुरूप संगत करने में प्रवीण थे उस्ताद सादिक अली खाँ बीनकार के साथ उन्होंने काफी संगत की। कभी-कभी कार्यक्रम के दौरान दोनों के बीच प्रतियोगिता उन जाती। मगर सहयोग की भावना से दोनों का वादन होता, न कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना से। उनका वादन सात्त्विक और शांतियुक्त होता था, किंतु चुनौती की स्थिति में उनकी चपलता देखते ही श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाते थे।
बेटे को दी संगीत की शिक्षा
उनकी (pandit Ayodhya prasad biography) पहली पत्नी से दो पुत्र- बड़े नारायण प्रसाद और छोटे कुंदन प्रसाद हुए। ये दोनों भी नवाब साहब के दरबार में पखावज बजाते थे, किंतु बीस-बीस वर्ष की अवस्था में दोनों नवोदित कलाकारों का निधन हो गया। जीवित पुत्रों में दूसरी पत्नी से पं. शीतल प्रसाद तथा दूसरी पत्नी से पं. रामजी लाल हैं।
उन्होंने रामजी लाल को बड़े परिश्रम से मृदंग की शिक्षा दी, जो आकाशवाणी दिल्ली से जुड़कर देश के बड़े-बड़े संगीत सम्मेलनों में भाग लेते हैं। पं. अयोध्या प्रसाद को संगीत के क्षेत्र में बहुत ही प्रसिद्धि मिली। कई वर्षों तक परीक्षक के रूप में भातखंडे संगीत महाविद्यालय, लखनऊ की सेवा की तथा सदैव विशारद एवं प्रवीण की परीक्षाएं लीं। आकाशवाणी के विविध केंद्रों से अपना मृदंग वादन का कार्यक्रम दिया अनेक बार आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता रही। वह एक प्रकार से मृदंग पर संगत करने के सम्राट् थे। उनका एकल वाद्य पूरे भारत में विशिष्ट ढंग का था। वह ध्रुपद, वीणा आदि की अद्भुत संगत करते थे।
पंडित अयोध्या प्रसाद को मिले सम्मान
भारत में ऐसा कोई संगीत सम्मेलन नहीं होता था, जिसमें पं. अयोध्या प्रसादजी आमंत्रित नहीं किए जाते। सन् १९२५ में लखनऊ में हुए संगीत सम्मेलन में उन्हें ‘आचार्य‘ की उपाधि से विभूषित किया गया। सुर श्रृंगार संसद्, बंबई ने उन्हें ‘ताल विलास‘ की उपाधि दी तथा ‘पखावज के भीष्म पितामह‘ की पदवी।
भारतीय संगीत एवं ललितकला विद्यापीठ कानपुर ने उन्हें ‘संगीत मार्तंड‘ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ और वे भारत सरकार की ओर से पद्मश्री की उपाधि से गौरवान्वित भी हो चुके हैं।
गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत मृदंग की शिक्षा देने हेतु केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी से उन्हें चयनित किया गया। वैसे तो उनकी शिष्य मंडली विशाल है, किंतु उनके प्रमुख शिष्यों में आचार्य कैलाशचंद्र देव बृहस्पति रमाकांत पाठक, टी. आर. शुक्ल तथा पुत्र पं. रामजी लाल के नाम प्रमुख हैं। दिसंबर १९७७ में उनकी तबीयत खराब हुई और पखावज का यह महान् कलाकार २८ दिसंबर, १९७७ को सदा के लिए संसार त्याग कर अमर हो गया।