पंडित ओंकारनाथ ठाकुर जीवन परिचय
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के योग्य शिष्यों में पं. ओमकार नाथ ठाकुर का नाम ‘बड़ा ही आदरणीय है। पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने संगीत और संगीतज्ञों की समाज में सम्माननीय स्थिति स्थापित करने का संकल्प लिया था। यह संकल्प योग्य शिष्य ने पूर्ण कर दिखाया।
संगीत के क्रियात्मक एवं शास्त्र पक्ष के अद्भुत समन्वयकर्ता के रूप में भी पं. ओमकार नाथ ठाकुर का नाम सम्मानित रूप से लिया जाता है। स्वर, राग और रस के एकनिष्ठ साधक, भारतीय शास्त्रीय संगीत के अति लोकप्रिय गायक, संगीत के अनेक ग्रंथों के प्रणेता, विचारक और उच्च कोटि के संगीत गुरु तथा देश में ही नहीं, विदेशों में भी श्रोताओं को भारतीय संगीत से मंत्र-मुग्ध कर देनेवाले पं. ओमकार नाथ ठाकुर बहुमुखी प्रतिभा से युक्त थे।
जन्म स्थान
ओमकार नाथ ठाकुर का जन्म २४ जून, १८९७ को बड़ौदा रियासत के जहाज ग्राम में हुआ। पिता पं. गौरीशंकर ठाकुर और माता झवेरवा थीं बचपन में अनेक कठिनाइयों के बीच उनका जीवन व्यतीत हुआ। इसके बावजूद संगीत के प्रति उनमें लगन व्याप्त रही। गांव में जब कोई भी छोटा-बड़ा गायक या भजनीक आता तो उसे सुनने के लिए वह घर से भाग जाते थे।
मां को करनी पड़ी मजदूरी
जब ओमकार नाथ तेरह वर्ष के थे, पिता का स्वर्गवास हो गया। पूरा परिवार कलह और आर्थिक संकट की चपेट में आ गया। मां को मजदूरी करनी पड़ी और बालक ओमकार नाथ के कंधों पर भी घर का समस्त उत्तरदायित्व आ पड़ा।
पंडित जी को करनी पड़ी मजदूरी
उनकी सारी संपत्ति को भी परिवार के अन्य सदस्यों ने हड़प लिया, अतः बाल्यावस्था में ही उन्हें मजदूरी करने को बाध्य होना पड़ा। तत्काल भड़ौच की एक रामलीला कंपनी में आठ रुपए वेतन पर काम करना शुरू कर दिया। भोजन का प्रबंध कंपनी की ओर से ही था। उन्होंने चार माह के एकमुश्त वेतन के रुपए की माता के चरणों में अर्पित करने हेतु भड़ौच से गांव तक पैंतीस मील का रास्ता छोटी सी उम्र में तय किया।
पंडित जी के गाने से प्रभावित हुआ उद्यमी
उन्हीं दिनों भड़ौच के एक संपन्न व्यक्ति सेठ सापुरी ने एक बार उनका गाना सुना और सुनकर इतने प्रभावित हुए कि अपने खर्च पर शास्त्रीय गायन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए ओमकार नाथ को बंबई के गंधर्व महाविद्यालय में पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के पास भेज दिया।
कठिन रियाज से निखार
गुरु के आशीर्वाद व शिक्षा के फलस्वरूप उनके व्यक्तित्व में निखार आने लगा। गुरु की आज्ञा व निर्देश के अनुसार नित्य प्रति सूर्योदय के साथ गुरु के शयन कक्ष के समीप अभ्यास करते। कठिन रियाज के फलस्वरूप उनकी आवाज़ मेघ के समान गंभीर, तीनों सप्तकों में सहज रूप से स्वरों को घुमाने की क्षमता, भावानुकूलता, लोच आदि गुणों की प्रतिष्ठा गले में हो गई। स्वर साधन की अवधि में ही उन्होंने मृदंग का भी अभ्यास शुरू कर दिया और कुछ ही समय के उपरांत मृदंग वादन का ‘एकल’ कार्यक्रम संगीत सभाओं में देने लगे।
गंधर्व महाविद्यालय के प्राचार्य नियुक्त
अपने शिष्य की विलक्षण प्रतिभा एवं योग्यता से प्रभावित होकर विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने सन् १९१६ में उन्हें गंधर्व महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर नियुक्त कर संगीत शिक्षण का गुरुतर दायित्व उनके कंधों पर सौंप दिया। यहां ओमकार नाथ ठाकुर ने ‘लगभग चार वर्ष से अधिक समय तक योग्य शिक्षक के रूप में समय व्यतीत किया तथा इस अवधि में कई अखिल भारतीय स्तर के कार्यक्रम किए।
गंधर्व निकेतन की स्थापना की
लाहौर के पश्चात् पंडितजी बड़ौदा आए। बड़ौदा में उन्होंने एक नए संगीत विद्यालय ‘गंधर्व निकेतन’ की स्थापना की। इसके बाद बंबई एवं सूरत में संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाने और संगीत के प्रचार-प्रसार के निमित्त संगीत विद्यालयों की स्थापना की।
जून १९२२ में सूरत की इंदिरा देवी के साथ उनका विवाह हुआ। विवाहोपरांत उनके ऊपर उत्तरदायित्व का बोझ और अधिक हो गया। विविध समारोह एवं जलसों से प्राप्त रकम परिवार के निर्वाह तथा विवाह पर हुए कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
नेपाल यात्रा में अनेकानेक संकट
अतः नेपाल महाराज से धन प्राप्ति और सम्मान प्राप्ति की लालसा से नेपाल के लिए निकल पड़े। नेपाल यात्रा में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा। किंतु अनवरत रूप से कठिनाइयों का सामना करते नेपाल जा पहुंचे। नेपाल नरेश ने उन्हें उनके गायन से प्रभावित होकर पुरस्कार-स्वरूप पांच हजार रुपयों की राशि भेंट की।
इस प्रकार पंडितजी ने नेपाल की यात्रा तीन बार की और प्रत्येक बार उन्हें विपुल राशि में धन देकर सम्मानित किया गया।
इटली, फ्रांस, जर्मनी की भी यात्रा
नेपाल के अलावा उन्होंने इटली, फ्रांस, जर्मनी, बेलल्जियम, स्विट्जरलैंड और इंग्लैंड आदि देशों की यात्रा की। भारतीय शास्त्रीय संगीत का विदेशों में प्रचार करने के उद्देश्य से उनकी यात्रा ने भारतीय संगीत का मस्तक ऊँचा किया। इटली के बैनीटो मुसोलिनी पंडितजी के गायन से अत्यधिक प्रभावित हुए।
१९३३ में इटली में अंतरराष्ट्रीय संगीत परिषद् में भारत के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। १९५० में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की स्थापना की गई। विश्वविद्यालय में संगीत कला भारती के नाम से संगीत महाविद्यालय की स्थापना होने पर पं. मदनमोहन मालवीयजी ने पं. ओमकार नाथ ठाकुर को संस्था का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिसका निर्वाह अवकाश ग्रहण करने तक बड़ी कुशलता से किया।
उन्होंने संगीत को लोगों के पास पहुँचाने का अथक प्रयास किया। उनका उद्देश्य लोगों की रुचि को परिष्कृत करना था। पंडितजी प्रभावशाली वक्ता भी थे, इस कारण गायन के क्रम में सम्मेलनों के अंतर्गत बीच में ही उद्बोधक प्रवचन व चेतना जागृति से संबंधित वक्तव्य भी देते थे, जो श्रोताओं पर चिरस्थायी प्रभाव डालता था।
पं. ओमकार नाथ ठाकुर के समकालीन संगीतज्ञों में उस्ताद फैयाज खाँ, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ, पं. विनायक राव पटवर्द्धन, पं. नारायण राव व्यास, मल्लिकार्जुन मंसूर, रोशन आरा बेगम, केसरबाई केरकर, गंगूबाई हंगल एवं हीराबाई बड़ोदकर आदि गुणी व नामी गायक-गायिकाएँ थीं; मगर पंडितजी का अपना अलग ही रंग था।
पुरस्कार और सम्मान
सन् १९५२ में भारत सरकार द्वारा उन्हें अफगानिस्तान भेजा गया, जहाँ उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक मंडल का नेतृत्व किया तथा १९५३ में बुडापेस्ट और १९५४ में जर्मनी में हो रहे विश्व शांति परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
कला के साथ-साथ शास्त्रकार के रूप में भी पंडितजी का संगीत जगत् को अप्रतिम योगदान है। सन् १९३८ में ‘संगीतांजलि’ नामक ग्रंथ के प्रथम भाग का प्रकाशन हुआ, जिसमें क्रियात्मक व कला पक्ष दोनों पर सारगर्भित विवेचन किया गया है। बाद में इसका छह खंडों में प्रकाशन हुआ।
इस श्रृंखला के अलावा उनके द्वारा रचित ‘प्रणव भारती’ नामक ग्रंथ में शास्त्र संबंधी रहस्यों को स्पष्ट किया गया है। ‘संगीतांजलि’ में उन्होंने अपनी स्वरचित स्वरलिपि पद्धति का अनुसरण किया। १९४० में राजकीय संस्कृत महाविद्यालय कलकत्ता द्वारा ‘संगीत मार्तंड’, १९४३ में विशुद्ध संस्कृत महाविद्यालय काशी द्वारा ‘संगीत सम्राट्’ तथा १९५५ में पद्मश्री आदि उपाधियों से उन्हें विभूषित किया गया।
२८ दिसंबर, १९६७ को अस्वस्थता की अवस्था में पंडितजी का स्वर्गवास हो गया। अपने पीछे वे शिष्यों की एक लंबी कतार, प्रशंसक और एक महान् संगीत- आदर्श छोड़ गए।