आपातकाल के दौरान कबाड़ी बाजार और तुर्कमान गेट इलाका कराया गया खाली  

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि राजनीतिक सत्ता के संचालन की बागडोर इन्दिरा गांधी के हाथों से निकलकर उनके छोटे बेटे संजय गांधी के हाथ में चली गई थी। श्रीमती गांधी तक पहुँचने के सारे रास्ते उन्हीं से होकर जाते थे। अफ़वाह यह थी कि त्यागपत्र देने के निर्णय के सही मौके पर उन्हें विमुख करने में जो भूमिका इस बेटे ने निभाई थी, उसके लिए वे मन-ही-मन उसके प्रति कृतज्ञ थीं।

कितना परिस्थिति का अनुरोध था और कितना पुत्र-मोह, कहा नहीं जा सकता। पर इतना तय था कि देश की राजधानी में जो घटित हो रहा था, वह इन्दिरा गांधी की प्रकृति से मेल नहीं खाता था। ख़ुद माँ-बेटे के बीच सत्ता- सन्तुलन को लेकर होनेवाली कहा-सुनी और टकराहट के भी तमाम क़िस्से शहर में मशहूर थे। इनमें सच-झूठ, अतिरंजना के अनुपात के बारे में प्रामाणिक जानकारी किसी को नहीं थी।

बहरहाल, इतना तय था कि अभिव्यक्ति पर सेंसर और प्रतिबन्ध लगाने के कारण इन्दिरा गांधी खुद भी सच्चाई से महरूम हो गई थीं। आश्चर्य नहीं कि कुछ हद तक संजय गांधी की स्थिति भी इससे बहुत बेहतर न रही हो, क्योंकि उनके चारों तरफ़ चापलूस अवसरवादियों की टोली ने ऐसा घेरा डाल रखा था कि ख़बरें वही पहुँचती थीं, जो और जिस रूप में पहुंचाई जाती थीं। मुख्य बात थी इस भुलावे को हवा देना कि शहर में जो कुछ हो रहा है, वही सही भी है और सबके हित में भी है।

निरावेग ढंग से सोचा जाए तो दिल्ली शहर की मुख्य समस्या बढ़ती जनसंख्या है, जो देश की समस्या भी है। इसी समस्या ने इस शहर को एक विशाल स्लम में तब्दील कर दिया है। दिल्ली के नाम पर अब जो सामने है, उसमें से पुरानी दिल्ली को खोजना दूभर है।

इस नज़र से पीछे मुड़कर देखें तो जनसंख्या पर काबू पाने और शहर के मुखड़े की साज-सँवार करने के संकल्प के पीछे नीयत में खोट ढूंढ़ना मुश्किल होगा। खोट था तो उस अन्धाधुन्धी में जिससे इन संकल्पों को कार्यान्वित करनेवाली योजनाएं लागू की गईं।

सरकारी दफ्तरों से लेकर शैक्षिक संस्थाओं और झुग्गी-झोंपड़ियों तक में जिस तरह परिवार नियोजन के हवाले से नसबन्दी कार्यक्रम लागू किए गए, उसमें इनसानों से ज़्यादा आंकड़ों का महत्त्व हो गया।

पात्र-अपात्र, उचित-अनुचित की चिन्ता किए बगैर पकड़-पकड़कर नाबालिग बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की नसबन्दी कर दी गई। लक्ष्य था आंकड़े। आका के दरबार में अपनी वफ़ादारी और कौशल का प्रमाण पेश करना और बदले में अनुग्रह पाना। देखते-देखते पटरियों की बगल में साइकिलें मरम्मत करनेवाले हैसियतदार हो गए। ये नुमाइन्दे जनता पर क्या कहर ढा रहे हैं, इसकी इनके आकाओं को ठीक-ठीक खबर ही नहीं हो पाई।

शहर के भीड़-भाड़ गन्दगी-भरे इलाक़ों की साफ़-सफाई करके दिल्ली को एक बार फिर शाहजहांनाबाद का ऐतिहासिक दर्जा दिलाना संजय गांधी का दूसरा सपना था। इस योजना में राज्यपाल जगमोहन का पूरा सहयोग और समर्थन उसके साथ था। दरअसल यह जगमोहन का अपना सपना भी था। सबसे पहले इसकी कार्यान्विति के लिए जामा मस्जिद और तुर्कमान गेट के इलाके चुने गए।

आनन-फानन में जामा मस्जिद का कबाड़ी बाज़ार साफ़ हो गया, और तुर्कमान गेट की बन्द डिब्बों जैसी घनी खंडहरनुमा बस्ती और कच्ची-पक्की इमारतों पर बुलडोज़र चला दिए गए। ऐसे मौकों पर जो अक्सर होता है, वही हुआ होता अगर आपात् स्थिति लागू न होती। न विरोध-प्रदर्शन की कोई गुंजाइश थी, न क़ानूनी कार्रवाई की। इस अभियान का उजला पक्ष यह था कि ध्वंस के बाद निर्माण का ब्लू-प्रिंट पहले से तैयार कर लिया गया था। तुर्कमान गेट पर आज जो सफ़ेद रंग के करीने से बने फ्लैट नज़र आते हैं, वे उसी उत्तरवर्ती कार्रवाई का नतीजा हैं। जामा मस्जिद की सीढ़ियों के चारों तरफ़ का इलाक़ा अगर निकलने और सीढ़ियाँ चढ़ने लायक बचा है और आसपास की दुकानें लाल किले की दिशा में तरतीब से मीना बाज़ार की शक्ल में आबाद हैं, तो यह भी उसी सफाई अभियान से सम्भव हुआ था। कबाड़ी बाज़ार इतवारी बाज़ार के रूप में अब हर हफ़्ते लाल किले के पीछे लगता है। इस बाज़ार का अपना भूगोल और दिलचस्प इतिहास है। यह दिल्ली का शायद अकेला चोर बाज़ार भी है, जो क़ानून की गिरफ्त से हमेशा बाहर ही रहा है।

उन्हीं दिनों जामा मस्जिद के आसपास, खासकर चावड़ी बाज़ार को केन्द्रित करके, एक प्रस्तावित ब्लू-प्रिंट अखबारों में प्रकाशित हुआ था। बहुत भव्य, जिसका पुराने शाहजहाँनाबाद से तो बहुत लेना-देना नहीं था पर भीड़ छाँटकर एक साफ-सुथरा व्यापारी इलाक़ा बनाने की मंशा उससे ज़रूर ज़ाहिर होती थी।

दिल्ली को भीड़ और गैर-क़ानूनी कब्ज़ों से निजात दिलाने के लिए एक क़दम और उठाया गया। सारे शहर में बिखरे ऐसे लोगों को जबरन घेरकर यमुना पार उन इलाक़ों में पहुंचा दिया गया जो अब नन्दनगरी, त्रिलोकपुरी और उसके आसपास बसे हैं।

योजना वहां एक कमरे के पक्के घर बनाकर इन परिवारों के सिर पर छतें मुहैया कराने की थी। इन लोगों में ज़्यादातर छोटा- मोटा खुदरा धन्धा करनेवाले लोग थे, जिनका जीवन चाय, पान-बीड़ी, और ऐसी दूसरी सामग्री की अस्थायी दुकानों और चलती-फिरती रेहड़ियों के सहारे चलता था।

दिल्ली शहर के भीतर ये ज़्यादातर बाहर से आए लोग थे जिनकी अपनी अलग दुनिया थी। झुग्गी-झोंपड़ियों की अपनी बस्तियां थीं जो धीमी प्रक्रिया में स्थायी-सी होती जा रही थीं। जो एक बार शहर में आ जाता था, वह खुद लौटने के बजाय दस और के आने का ज़रिया बन जाता था।

 मानवीय दृष्टिकोण से यह अपने ढंग की एक बड़ी समस्या थी पर प्रशासन की दृष्टि से शहर के वित्तीय और दूसरे संसाधनों पर इससे भारी दबाव पैदा हो रहा था और व्यवस्था चरमरा रही थी। शहर के भीतर इनकी रिहाइशी व्यवस्था करना व्यावहारिक नहीं था।

हल एक ही हो सकता था-शहर के सीमावर्ती इलाक़ों में इनकी व्यवस्था की जाए। इसके दो ही रास्ते थे-रज़ामन्दी या ज़ोर- ज़बरदस्ती। ज़ाहिर है, आपात् स्थिति ने दूसरे रास्ते के प्रयोग की सुविधा दे दी।

वास्तविकता यह है कि उस समय जो बहुत बड़ा अमानवीय कुकृत्य मालूम हो रहा था, उसका मूल्यांकन इस तथ्य पर ध्यान देकर किया जाना चाहिए कि ये तथाकथित ‘उखड़े हुए लोग’, आरम्भिक असुविधाएं दूर होने के बाद, किसी क़ीमत पर लौटने के लिए तैयार नहीं हुए। बहरहाल, इस योजना के आरम्भ होते ही शहर में हाहाकार मच गया।

इसे गरीब जनता पर नादिरशाही हमले के रूप में देखा गया। गली-गली, चौराहे-चौराहे इसकी दबी ज़बान से आलोचना हुई। स्थायी निवासियों ने अस्थायी घरेलू कामगरों से हाथ धोया। खरीद-फरोख्त के करीबी ठिकाने उजड़ गए। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी, जानेवालों के लिए पूरी तरह और स्थायी निवासियों के लिए अस्थायी रूप में मुहाल हो गई। पर धीरे-धीरे दिल्लीवालों को लगने लगा कि शायद कुल मिलाकर दैनन्दिन जीवन में इन योजनाओं के दूरगामी परिणाम बहुत गलत नहीं होंगे।

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