हाइलाइटस

  • -दिल्ली अभिलेखागार विभाग दिल्ली के रहन-सहन, कला संस्कृति संबंधी दुलर्भ तस्वीरों को कर रहा इक्टठा
  • -ओरल हिस्ट्री प्रोजेक्ट के तहत ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन कर रहा विभाग
  • -दारा शिकोह और बहादुर शाह जफर के बेटे मिर्जा जवां बख्त की शादी से जुड़े दस्तावेज भी किए जाएंगे संरक्षित

दिल्ली..शहर जो जिंदाजिल है, बेलौस है। मस्तमौला अंदाज में अपनी राह पर चलती। जहां हर गली, हर नुक्कड़, चौक-चौराहे की अपनी कहानी है। जिससे भावनाएं जुड़ी है। समृद्ध एतिहासिक विरासत की परंपरा संजोए शहर की कला-संस्कृति, लोगों के रहन-सहन, खान-पान की बात ही निराली थी। ज्यादा नहीं एक दशक पहले तक दिल्ली की ठसक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ब्रितानिया हुकूमत ने कलकत्ता से राजधानी स्थानांतरित कर दिल्ली बनाई। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का प्रमुख केंद्र भी दिल्ली ही रही। यानी वक्त के लगभग हर लम्हें में दिल्ली से जुड़ी कई यादें कैद है। कभी खट्टी तो कभी मीठी। इन यादों को पहली बार संजोकर लोगों के सामने पेश करने का बीड़ा उठाया है दिल्ली अभिलेखागार विभाग ने। ओरल हिस्ट्री नामक प्रोजेक्ट के जरिए ऐतिहासिक दस्तावेजों, तस्वीरों का संकलन किया जा रहा है। जिसे बाद में अलग अलग इलाके में प्रदर्शनी के जरिए लोगों को दिखाया जाएगा। इस आर्टिकल में हम इस प्रोजेक्ट के बहाने दिल्ली से जुड़ी कहानियों, यांदों से रूबरू होंगे।

लगेगी प्रदर्शनी

अधिकारियों ने बताया कि दिल्ली की पिछले एक दशक की लाइफ स्टाइल, दिल्ली से जुड़ी कहानियां, ऐतिहासिक विरासत व उनसे जुड़ी कहानियों से संबंधी दस्तावेजों का संग्रह किया जा रहा है। इसमें शाही शादियां, 1857 का गदर, पाकिस्तान से भारत शरणार्थियों के आने की घटना समेत कई अन्य पहलु शामिल है। इनका आडियो, वीडियो, तस्वीर इक्टठा की जा रही है। एक बार यह कार्य पूरा हो गया तो दिल्ली के विभिन्न इलाकों में प्रदर्शनी लगा लोगों को दिल्ली के पुराने बाशिंदों के रहन सहन से रूबरू कराया जाएगा। दिल्ली की संस्कृति, संगीत वाद्य यंत्र, शादी समेत विभिन्न आयोजन संबंधी अनुष्ठान की जानकारी एकत्र की जा रही है जिसे वर्तमान पीढ़ी भूलती जा रही है। प्रोजेक्ट के पूरा होने के बाद दस्तावेजों को आनलाइन किया जाएगा। दस्तावेज एकत्र करने में स्कॉलर, इतिहासकारों की भी मदद ली जा रही है।

शाही शादी का वैभव

शादी समारोह से जुड़े दस्तावेज भी जुटाए जा रहे हैं। मसलन, मुगल काल में धूमधाम से शादियां होती थी। शाहजहां के बेटे दारा शिकोह की शादी 1633 में हुई है। ऐसा कहा जाता है कि उस समय शाहजहां ने शादी पर 33 लाख रुपये खर्च किए थे। इसी तरह बहादुर शाह जफर ने अपने बेटे मिर्जा जवां बख्त की शादी भी धूमधाम से की थी। जफर के दरोगा-ए-माही मरातिब जफर देहलवी ने अपनी दास्तां-ए-गदर में लिखा है कि जवां बख्त की शादी सा समारेाह उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। वो लिखते हैं कि भारत में तमाम राजा महाराजाओं की शादी हुई लेकिन इस जैसा समारोह शायद ही कभी हुआ हो। लाल किले को खूब सजाया गया था। किले के प्रत्येक मेहराब पर महफिल सजी थी। अलग अलग नृत्य समूह आए थे। राजा, महाराजाओं के लिए अलग नृत्य व गायन की व्यवस्था की गई थी। जबकि कर्मचारियों आदि के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई थी। बकायदा एक आदेश जारी कर शाहजहानाबाद के सभी बाशिंदों से किले में आकर जश्न में शरीक होने की गुजारिश की गई थी। करीब 12 दिनों तक चले उत्सव में प्रत्येक निवासी को खाने की थाली जिसे तोरा कहते हैं भिजवाया गया था। तोरा नहीं लेने वाले को 50 रुपये नकद दिया गया था। तोरा में 5 से 10 प्रकार की मिठाईयां, 5 प्रकार के पुलाव समेत अन्य खाद्य पदार्थ थे। अधिकारी कहते हैं कि नृत्यांगनाओं, नाटक मंडली की कई दुर्लभ तस्वीरें जुटाई गई हैं।

त्योहारी रंगत बेमिसाल

शाहजहानाबाद गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल इसके त्योहारों में साफ झलकती है। शाहजहानाबाद में होली, दिवाली, ईद धूमधाम से मनाई जाती थी। लाल किले में बकायदा विशेष व्यवस्था की जाती थी। पकवान बनते थे, खुद बहादुर शाह जफर भी त्योहार में शरीक होते थे। होली तो खूब उत्साह के साथ मनाया जाता था। महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक दिल्ली जो एक शहर थाा में लिखा है कि रात में किले में जश्न मनाया जाता था। जिसमें कविता पाठ, नृत्य होता था। लोग अमीर, प्रसिद्ध शख्सियत वालों के घर के बाहर इक्टठा होते थे और खूब हंसी ठिठोली होती थी। संगोष्ठी को कुफर कशेरीयन नाम से जाना जाता था। वहीं कई जगह तो हाथी आदि जानवरों की लड़ाई भी करवाई जाती थी।

नाइट लाइफ का दौर

दिन ढलते ही यमुना किनारे घूमने वालों की संख्या बढ़ जाती थी। अधिकारी कहते हैं कि रात के समय घुमने टहलने निकलते थे। कई ऐसे स्थान थे जहां लोग बड़ी संख्या में जाते थे। इसमें फिरोज शाह कोटला, धौला कुआं, सफदरजंग मकबरा, हुमायूं का मकबरा आदि था। हालांकि सिर्फ पुरूष ही रात के समय घुमने निकलते थे। पुरूष हाथ में लालटेन एवं किरोसीन की टंकी लेकर चलते थे। यमुना का किनारा इसलिए भी पसंद किया जाता था कि इसके किनारे तरबूज, खरबूज की खेती होती थी। खुला आसमान, बहती ठंडी हवा के बीच घर के खाने के साथ तरबूज और खरबूज के स्वाद की बात ही निराली थी। यह चलन सन 1950 तक चलता रहा।

तैराकी पसंद

एएसआइ के रिटायर्ड अधिकारी जमाल हसन कहते हैं कि मुगल काल में मनोरंजन के साधनों में तैराकी प्रमुख था। शाहजहां, बहादुर शाह जफर के शासन में यमुना किनारे बकायदा तैराकी प्रतियोगिता का आयोजन होता था। जिसमें शाहजहानाबाद के युवा प्रतिभागी भाग लेते थे। ढोल नगाड़े बजाते हुए लोग समूह में नदी किनारे पहुंचते थे एवं प्रत्येक टीम के सदस्य अलग अलग झंडा लिए रहते थे। जितने पर खूब स्वागत सत्कार होता था। लंबी दूरी तक तैराकी की भी प्रतियोगिता होती थी। खासकर गर्मियों के मौसम में तो यमुना किनारा गुलजार रहता था।

विक्रेता के ठाठ निराले

अभिलेखागार विभाग के अधिकारी बताते हैं पुरानी दिल्ली की गलियों में सामान बेचते विक्रेताओं की भी फोटो मिले हैं। दरअसल, उन दिनों विक्रेता अनूठे तरीके से सामान बेचते थे। ये प्रत्येक सामान को एक गीत में पिरोते थे एवं फिर गाना गाकर सामान खरीदने के लिए लोगों को बुलाते थे। इसी तरह चांदनी चौक, चावड़ी बाजार में हेयर ड्रेसिंग कराते लोगों की भी तस्वीरें हैं। नाटक मंडलियों की फोटो आकर्षक है। इन सभी को संकलित करने का काम जोरों शोरों से चल रहा है।

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