1857 की क्रांति: विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि एक तरफ दिल्ली जंग में उलझी हुई थी तो वहीं दूसरी प्रेमियों को मौका मिल गया कि वह भाग खड़े हों। अगर इस एक महीने में दाखिल की गई अर्जियों को देखा जाए, तो मालूम होता है कि अगस्त की अफरा-तफरी ने फरार हाने वाले आशिकों के लिए एक साजहगार माहौल पैदा कर दिया था।
सूरज बाली की बीवी बलहिया भिकारी के साथ भाग गई। दुखी पति ने शिकायत की कि “और तो और मेरी सारी दौलत भी चुराकर ले गई,।
एक भूतपूर्व तवायफ हुसैनी भी, जिसकी शादी शेख इस्लाम से हुई, मौके का फायदा उठाकर किसी और आदमी के साथ गायब हो गई। शेख ने बहादुर शाह जफर को लिखा कि वह हिंदू था लेकिन उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और वह बगावत के शुरू में मेरठ से भागकर दिल्ली पनाह लेने आया था। उनके आने के कुछ दिन ही बाद हुसैनी ईदगाह के पास जूते बनाने वाले खुदा बख्श से मिली जो शेख के अनुसार, ‘एक जासूस और जुआरी’ था।
शायद वह अपनी पिछली जिंदगी की चहल-पहल की कमी महसूस कर रही थी और शेख के साथ उसे अपनी जिंदगी बहुत गंभीर लगती थी। इसलिए उसने शेख इस्लाम को छोड़ दिया। और अपने साथ ‘वह तमाम कीमती माल भी ले गई, जो मैं अपने घर से लाया था’।” बहुत से आशिकमिजाज लोग सिपाहियों में से थे।
क्योंकि लड़ाई के जमाने में बांके सिपाहियों के प्रशंसकों की कोई कमी नहीं होती है। इसलिए बर्तन बनाने और टीन ठोंकने वाले पीर बख्श ने जो न सिर्फ अपनी बीवी बल्कि अपने भाई की बीवी जिया से भी ताल्लुक रखता था और पड़ोसियों के बयान के मुताबिक रोजाना उसे पीटता था, आखिरकार जिया को एक सिपाही जमीर के हाथों खो दिया। जमीर ने एक बार जिया को पनाह दी थी, जब उसका पीर बख्श से बहुत ज़बर्दस्त झगड़ा हुआ था।
जब दरबार में यह मुकद्दमा पेश हुआ तो जिया ने जवाब में कहा कि ‘कटरा मुहल्ले के रहने वाले सारे लोग पीर बख्श की रोजाना मारपीट के गवाह हैं।’ पीर बख्श ने इस इल्जाम से इंकार किया और कहा कि जिया को दरअसल उसकी बीवी ने मारा था। ‘मैंने तो बस एक थप्पड़ मारा था। यह तो औरतों की लड़ाई थी। उसने यह भी कहा कि उसका जिया से शादी करने का कोई इरादा नहीं था। लगता है कि जमीर को उसे ले जाने की इजाजत मिल गई और पीर बख्श को एक इकरारनामे पर दस्तखत करने पड़े कि वह उस पर ‘कोई जबरदस्ती नहीं करेगा और अगर उसने उसे नुकसान पहुंचाया तो उसे पचास रुपए जुर्माना देना पड़ेगा।