1857 की क्रांति: विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि पत्रकार जहीर देहलवी की तरह ही सरवरुलमुल्क के खानदान ने भी 14 सितंबर को सुबह नाश्ते के वक़्त सुना कि अंग्रेज़ शहर की दीवारों के अंदर घुस आए हैं। उन्होंने फैसला किया कि वह इस तरह बैठे-बैठे नहीं मारे जाएंगे। इसलिए उन्होंने अपने रिश्ते के भाई नवाब जियाउद्दौला से मशवरा किया और तय किया कि अभी जबकि शायद फरार होना मुमकिन है, वह राजपूताना में अपने रिश्तेदारों के घर अलवर चले जाएंगे। सिर्फ सरवरुलमुल्क के चचा इस प्रस्ताव के खिलाफ थे क्योंकि उन्होंने अपने इल्मे-नुजूम से हिसाब लगाकर तय कर लिया था कि अंग्रेजों को जरूर शिकस्त मिलेगी।
“मेरे पिता बहुत अफसोस करते दिल्ली दरवाजे के करीब अपने घर लौट आए ताकि वह अपने खानदान के लिए जरूरी साजो-सामान मुहैया करके उनको अपने बड़े भाई के घर पहुंचा दें, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए। शहर के उत्तरी हिस्से में बहुत शोर-गुल हो रहा था और हर सड़क और हर गली में आमने-सामने की लड़ाई हो रही थी। गोरे सिपाही अपने पठान और हिंदुस्तानी मददगार सिपाहियों के साथ जो हर तरह के हाथियारों से लैस थे और फतह के नशे में चूर थे, लूटमार करने के लिए बेचैन थे।
उनके लिए औरतों, मदों, बच्चों, कमउम्रों और बूढ़ों में कोई फर्क नहीं था। खून का दरिया बह रहा था। वह औरतें जिनके लिए फिरदौसी ने ठीक कहा था कि ‘जिनके जिस्म इतने ढके हुए थे कि उन्हें सूरज की किरणों तक ने नहीं हुआ था,’ अब अपने शौहरों की किस्मत से बेखबर चारों तरफ भाग रही थीं।
“शहर का (दक्षिणी, या दिल्ली) दरवाजा हमारे घर के पास या। मेरे पिता और मामू बच्चों और औरतों को साथ लेकर वहां से बहुत खौफ और जल्दी में भागे और उन्होंने शहर की दीवार के बाहर एक दरगाह में पनाह ली। जब हमारे पुराने नौकर वहां पहुंचे, तब हमें अपने चचा और नवाब जियाउद्दौला के इंतकाल की खबर मिली। वह अपने आपको हथियारों से लैस करके औरतों, नौकरों और बच्चों के साथ पैदल घर से निकले थे।
लेकिन चांदनी चौक या उसके पास कहीं उनकी ‘काने’ मैटकाफ से मुठभेड़ हो गई और उससे लड़ाई करते हुए दोनों मारे गए। यह नहीं पता चला कि औरतों और बच्चों पर क्या गुजरी। “इस खबर को सुनकर सब इतने गमगीन हुए जिसका बयान नहीं किया जा सकता। हमारी अपनी हालत भी कुछ बेहतर नहीं थी।
हमें अपनी जान और माल के बारे में दोनों तरफ से खतरा था, एक तरफ क्रांतिकारियों से और दूसरी तरफ अंग्रेजों और उनके मददगारों से। ऐसा लगता था जैसे दोनों एक दूसरे से मुकाबला कर रहे हों कि कौन ज़्यादा लूटमार कर सकता है। सरवरुलमुल्क का खानदान इस मुसीबत में अकेला नहीं था।
उन तमाम इलाकों में जो अब अंग्रेजों के कब्ज़े में थे, यानी शहर के उत्तर-पूर्वी हिस्सों में, लुटेरे सिपाहियों का घरों में घुसकर लूटमार मचाना सही समझा जा रहा था और कोई मर्द जो लड़ सकने की उम्र का था, दुश्मन माना जाता था।
दिल्ली के बाशिंदों का एक बड़ा भाग, खासकर साहूकार या कारोबार या जायदाद वाले लोगों को-जो पिछले चार महीने से बागी सिपाहियों के हाथों लूटे जाने से तंग आ चुके थे और इस अराजकता के खत्म होने की इच्छा कर रहे थे-यकीन था कि कंपनी की हुकूमत अपनी घटिया हरकतों और नाइंसाफियों के बावजूद शहर में कम से कम कानून और अमन की हुकूमत वापस ले आएगी, और अंग्रेज भी अपने जासूसों के जरिए उनके इस ख़ामोश समर्थन से वाकिफ थे। दिल्ली के किसी बाशिंदों को इस तरह कत्लेआम की तो क्या इस तरह खुलेआम लूटमार की भी उम्मीद नहीं थी।