1857 की क्रांति: क्रांति के बाद दिल्ली शहर बिल्कुल वीरान हो गया। शहर उजड़ा उजड़ा दिखता था। 1861 में मायूस गालिब ने अपने एक मित्र को लिखा थाः
“दिल्ली, दिल्ली न रही एक सहरा बन गई है। और दिल्ली वाले अब तक यहां की जबान को अच्छा कहे जा रहे हैं। वाह रे हुस्ने-ऐतकाद, अरे बंदा-ए-ख़ुदा, उर्दू बाजार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली वल्लाह जब शहर नहीं है कैंप है, छावनी है। न किला, न बाजार, न नहर…
अपने एक और दोस्त को जिन्होंने पूछा था कि दिल्ली का क्या हाल है, उन्होंने लिखाः “चार चीजें दिल्ली को जिंदा रखती थीं। रोजाना सैर किले की, मजमा जामा मस्जिद का, हर हफ्ते सैर यमुना के पुल की और हर साल मेला फूल वालों की सैर का। यह कुछ नहीं बचा तो दिल्ली कहां बची, हां कभी हिंद में कोई शहर इस नाम का था।”
इन हालात में गालिब अक्सर सोचते थे कि जिंदा रहने का क्या मकसद है जबकि हर वह चीज खत्म हो चुकी है जिसके लिए उन्होंने जद्दोजहद की थी। वह लिखते हैं: “इंसान आंसुओं से अपनी प्यास नहीं बुझा सकता। जब नाउम्मीदी आखिरी हद तक पहुंच जाती है, तो अपने आपको खुदा की मर्जी पर छोड़ देना पड़ता है। इससे ज्यादा नाउम्मीदी क्या होगी कि मौत की उम्मीद मुझे जिंदा रखे है। 1 जून 1862 में उन्होंने लिखा, “मेरी रूह इन दिनों मेरे जिस्म में ऐसे बेचैन रहती है, जैसे कोई परिंदा पिंजरे में रहता है।
बगैर दिल्ली कॉलेज और बेहतरीन मदरसों के, छापाखानों और उर्दू अखबारों के और मुगल दरबार के जिसकी जबरदस्त सांस्कृतिक साख उसके संरक्षक माली तंगी की भरपाई करती थी–और सबसे ज़्यादा मुगल बादशाह के बगैर जो एक केंद्र और, किसी हद तक, प्रेरक की तरह थे, दिल्ली के ज्ञान और कलाओं की संचालक शक्ति लुप्त हो गई थी। हिंद-इस्लामी तहजीब के धड़कते दिल को नोचकर निकाल लिया गया था, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती थी। जैसा कि अपनी मौत के करीब गालिब ने लिखा, “ये सब चीजें सिर्फ तब तक रहीं जब तक बादशाह की हुकूमत थी।