अंग्रेजों की ये थी लाल किले पर फतह की योजना

1857 की क्रांति: 19 सितंबर की शाम को अंग्रेजों ने आखिरकार बर्न बुर्ज पर भी कब्जा कर लिया, जहां से एक दिन पहले उनको पीछे हटा दिया गया था, जिसमें उनको काफी नुकसान हुआ था। फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने दिल्ली बैंक की इमारत भी ले ली और अपने आपको अगले दिन 20 सितंबर को लाल किले पर धावा बोलने की लिए जमा लिया।

17, 18 और 19 सितंबर को दिल्ली से भागने वालों की हालत भी उतनी ही खस्ता थी, जैसी उनसे पहले मई में भागने वाले अंग्रेजों की थी। वह उन्हीं सड़कों से गुजरे, वही परेशानियां सहीं, उसी तरह लुटेरे गूजरों और मेवातियों ने उन पर हमला किया, जिन्होंने गर्मियों में अंग्रेजों को नंगा करके छोड़ा था।

हालांकि इन हिंदुस्तानी शरणार्थियों की बहुत कम आपबीतियां बची हैं, जबकि अंग्रेजों के 11 मई के आंखों देखे वाकेआत बड़ी तादाद में थे और गदर खत्म होने के कुछ ही महीनों बाद छप भी गए थे। फिर भी दिल्ली के कुछ पुराने खानदानों में अब भी बहुत से जबानी बयान महफूज हैं कि उनके बाप दादा पर गदर के जमाने में क्या गुजरी और वह कैसी मुसीबतों में रहे। बीसवीं सदी के शुरू में इनमें से कुछ को ख्वाजा हसन निजामी ने पुराने लोगों से हासिल करके एक किताब ‘बेगमात के आंसू’ के नाम से 1952 में प्रकाशित की।

मसलन, मिर्जा शाहजोर की कहानी जो ‘शहंशाह के दरबार छोड़ने के फौरन बाद’ दिल्ली से अपनी गर्भवती बीवी, छोटी बहन और मां के साथ दो बैलगाड़ियों में बैठकर फरार हुआ था और बहुत से मुगल शरणार्थियों की तरह वह पहले महरौली में कुतुब शाह की मजार पर गए और वहां उन्होंने एक रात गुजारी।

अगले दिन वह आगे रवाना हुए, लेकिन अभी चंद मील ही गए होंगे कि छतरपुर के पास गूजरों ने उन पर हमला करके उनको लूट लिया। और उनका सारा साजो-सामान ले गए मगर उनकी जान बख़्श दी। मिर्जा शाहजोर याद करते हैं कि ‘औरतें रो रही थीं और मैं उन्हें तसल्ली देने की पूरी कोशिश कर रहा था। मेरी मां हर कुछ कदम पर ठोकर खाती थीं और अपनी किस्मत को कोसती थीं कि इस उम्र में उनको ये दिन देखने पड़े। करीब ही एक गांव था, जिसमें मुसलमान मेवाती रहते थे, जिन्होंने हमें गांव के बीचोंबीच चौपाल में पनाह दी।  गांववालों ने उन्हें रख तो लिया और खिलाया पिलाया भी। लेकिन चंद रोज के बाद मिर्जा शाहजोर से कहा कि वह इसके बदले कुछ काम करें। उन्होंने पूछाः

“”तुम दिन भर बैठे क्यों रहते हो? कुछ करते क्यों नहीं?’ मैंने कहा मैं खुशी से काम करने को तैयार हूं, ‘मेरा पूरा खानदान फौजी था और मैं बंदूक चला सकता हूं, तलवार चलाना भी जानता हूं’। यह सुनकर गांववाले हंसने लगे और बोले, ‘यहां हमें तुम्हारी जरूरत गोली चलाने के लिए नहीं, बल्कि हल चलाने और ज़मीन खोदने के लिए है’।

यह सुनकर मेरी आंखों में आंसू आ गए। और यह देखकर गांववालों को मेरी हालत पर रहम आ गया। उन्होंने कहा, ‘अच्छा, तुम हमारे खेतों की देखभाल कर लिया करो और तुम्हारी औरतें सिलाई कर लेंगी। और हम तुम्हें अपनी फसल का एक हिस्सा दे दिया करेंगे’। तो इस तरह हमारी जिंदगी गुजरी। मैं दिन भर खेतों में चिड़ियां उड़ाता था और औरतें घर में सिलाई करती थीं।’

वह दो साल तक वह गांववालों के साथ रहे और उन्होंने बुरी तरह तकलीफें उठायीं। उन्हें अहसास हुआ कि असल भूख क्या होती है। वह बारिश के सैलाब में लगभग बह गए, किसी डॉक्टर के न होने की वजह से उनकी बीवी की बच्चे की पैदाइश में मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद उनका बचा-खुचा खानदान दिल्ली वापस आया और पांच रुपए महीने के वजीफे पर जो अंग्रेज शाही परिवार के बचे हुए लोगों को देते थे उन्होंने नयी जिंदगी शुरू की।

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