1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने सितंबर महीने में दिल्ली पर दोबारा कब्जा कर लिया। दिल्ली की हालत बहुत खराब थी। हर तरफ लूटमार हो रही थी। पत्थरदिल जॉर्ज वैगनट्राइबर भी दिल्ली के इर्द-गिर्द ही हालत देखकर दंग रह गया। उसने लिखा कि शहर के चारों तरफ ‘लाशों की एक लंबी कतार पड़ी हुई है ऊंट, घोड़े, बैल सब जिनकी खाल सूखकर चमड़ा हो चुकी है और गली हुई हड्डियों की बदबू अब भी फिजा को प्रदूषित कर रही है।

हर पेड़ या तो कट चुका है या हमारे गोलों का निशाना बनकर ढह चुका है। नवाबों और रईसों के बाग और हवेलियां खंडहर बनी हुई हैं, ज्यादातर की सिर्फ बाहर की चारदीवारी रह गई है और वह भी गोलियों के छेदों से भरी हुई, जबकि उनके सामने चारों तरफ इंसानों और जानवरों की बची-खुची सफेद हड्डियां बिखरी हैं।

बायीं तरफ सड़क के किनारे मैंने एक मुकम्मल हड्डियों का ढांचा देखा, जो बिल्कुल साबुत था और बजाहिर ऐसा लगता था जैसे वह कहीं से घायल नहीं है, सिर्फ उसकी खोपड़ी में एक सूराख नजर आ रहा था।

“मैं सब्जी मंडी की तरफ गया, जो कभी घने दरख्तों से भरी हुई थी, और मैं यह देखकर हैरान रह गया कि पिछले छह महीने में वहां कितनी तब्दीली हो गई थी। बजाय ऊंचे-ऊंचे आम, पीपल और दूसरे पेड़ों के, अब मीलों तक ज़मीन बिल्कुल सपाट थी। बजाय एक घने जंगल के अब सिर्फ खाली दरख्तों के तने रह गए थे। उनमें से बहुत से पेड़ों की टहनियां मवेशियों के चारे के लिए काट ली गई थीं लेकिन बहुत से दरख्त गोलियों की चोट से टेढ़े हो गए थे या झुक गए थे। यहां एक घर भी नहीं बचा था, दीवारें भी बहुत कम खड़ी रह गई थीं और जो थीं वह बंदूकों की गोलियों और तोपों के गोलों के छेदों के निशानों से भरी हुई थीं।

ऐसे ही खंडहरों में दिल्ली के अमीर और गरीब सब पनाह और खाना ढूंढ़ने की जद्दोजहद में लगे रहते थे। जैसा कि गालिब ने लिखा, ‘इस सात मील में फैले हुए विशाल शहर के रहने वाले रोज भूख और सिर पर साया न होने की वजह से मर रहे हैं।’ सड़कों के किनारे बेढंगी सी झोंपड़ियां बन गई थीं, जिनमें ‘शायद अमीर बनिए, दुकानदार और सौदागर रह रहे थे’, लेकिन नवंबर में ब्रिटिश हुकूमत ने एक फरमान जारी किया, जिससे उन झोंपड़ियों तक के बनाने पर पाबंदी लगा दी गई और उन्हें फौरन तोड़ देने का आदेश दिया गया। इसलिए वहां के रहने वालों को मौसम की सख्त मुसीबतों को झेलना पड़ा।

विलियम डेलरिंपल अपनी किताब आखिरी मुगल में लिखते हैं कि थोड़े ही दिन में बदहाल शरणार्थियों में बीमारी फैल गई, खासतौर से जफर के महरौली वाले महल और निजामुद्दीन दरगाह के आसपास।” “सैकड़ों कमजोर लोग दवा और खाने की कमी और बदहाली की वजह से मर गए, मेजर आयरलैंड ने लिखा। ‘आखिरकार नवंबर के अंत में सिर्फ हिंदुओं को वापस आने की इजाजत दी गई। अभी भी कोई मुसलमान दरवाजों के अंदर बगैर विशेष इजाज़तनामे के दाखिल नहीं हो सकता था। उनके घरों पर निशान लगा दिए गए थे और उन्हें वापस आने से पहले अपनी वफादारी के सुबूत देने होते थे।

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