1857 की क्रांति: बगावत खत्म होने के बाद जब बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल को कैद किया गया, तो लेफ्टिनेंट एडवर्ड ओमैनी ने 30 सितंबर, 1857 की अपनी डायरी में लिखा:

‘आज सुबह सॉन्डर्स आए… पूर्व-रानी से एक तफ्सीली बातचीत की। लेकिन उन्होंने उनसे भी वही कहा, जो मुझसे कहा था। और वह यह कि खुद उनका या उनके बेटे जवांबख्त या भूतपूर्व बादशाह का इस बगावत से कोई ताल्लुक नहीं था। लेकिन उनके हरम के बेटों मिर्जा मुगल और खिजर सुलतान और उनके पोते अबूबक्र का इसमें काफी अहम हिस्सा था। खुद उनके इल्म में बगावत की पहले से कोई सूचना नहीं थी। लेकिन शायद उन तीनों को हो, जो उनको खुद उस वक्त मालूम नहीं था। लेकिन बादशाह को और उन्हें और उनके बेटे को तो महल से बिल्कुल अलग रखा गया था।

उन्होंने कोशिश की थी कि किले के कमांडर डगलस को बाहर जाने से रोकें और फिर जब उनको पता चला कि वह जख्मी हो गए हैं, तो उन्होंने उनको खाना और हमदर्दी का संदेश भी भेजा था…”

उन्होंने यह भी कहा कि जब तक बागी सिपाही ज़बर्दस्ती किले में दाखिल नहीं हो गए, तब तक उन्हें उसके बारे में कुछ पता नहीं था। इससे जाहिर होता है। कि शाही खानदान का कोई भी व्यक्ति उनका स्वागत करने का इंतज़ार नहीं कर रहा था और न ही किसी ने किले के दरवाज़े को खुला छुड़वाया।

मई को दिल्ली की रेजिमेंट के बर्ताव से यह तो जाहिर होता है कि वह बागियों से मिले हुए थे लेकिन इसका कोई सबूत नहीं है कि किले के शहजादे बगावत के इंतज़ार में थे ताकि वह उसकी सिपहसालारी कर सकें। यह सही है कि मिर्ज़ा मुग़ल ने बहुत जल्द सिपाहियों से संपर्क स्थापित कर लिया था, जबकि किले के बाकी लोग उनसे दूरी बनाए हुए थे। बहरहाल जो कुछ भी था, मगर उस वक़्त से मिर्ज़ा मुग़ल ने पूरी सरगर्मी से फ़ौज की कमान और शह का प्रशासन अपने हाथ ले लिया, जिसमें उनकी मदद थियो मैटकाफ के दोस्त और उनको पनाह देने वाले मुईनुद्दीन हुसैन खां ने भी की जिन्हें मिर्ज़ा मुग़ल ने अपनी नियुक्ति के एक दिन बाद कोतवाल का पद दिया था।

बगावत के जमाने में जो सबसे ज़्यादा आश्चर्य की बातें हैं, उनमें से एक है मिर्ज़ा मुग़ल और उनके दफ्तर से मिले हुए बेशुमार कागजात, जिनमें मिर्ज़ा मुग़ल के हज़ारों आदेश लिखे हैं। बहुत से कागज़ों के संग्रहों में सिवाय आदेशों के और कुछ नहीं है। मसलन संग्रह 60 में मिर्ज़ा मुग़ल के दफ्तर से 831 आदेश हैं।

हैरत की बात है कि हिंदुस्तानी राष्ट्रवादियों ने भी 1857 की जो घटनाएं लिखी हैं, उनमें भी वही फर्ज कर लिया है जो अंग्रेज़ इतिहासकारों ने लिखा है, और मुग़ल शहजादों को बिल्कुल ही आरामपसंद और कामचोर मान लिया है। मिर्ज़ा मुग़ल के बारे में कहा गया है कि वह एक बेकार और निकम्मे अमीरजादे थे, लेकिन अगर हम उस जमाने की पुराने दस्तावेजों को देखें तो हमें पता चलेगा कि मिर्ज़ा मुग़ल उन सबसे कहीं ज़्यादा चुस्त और सक्रिय थे, जिन्होंने बगावत का झंडा बुलंद किया था और सबसे ज़्यादा उन्होंने ही महसूस किया कि इस बगावत को एक बाकायदा तरतीब देना और दिल्ली पर ठीक से प्रशासन लागू करना बहुत जरूरी है, लेकिन उनका प्रशासन वक्ती ख़तरों को संभालने में इतना मसरूफ रहा कि वह ऐसी ताकत नहीं बन सका, जो सिपाहियों के विभिन्न जत्थों को काबू कर सकता, और न ही उन आज़ाद जिहादियों को रोक सका, जो दिल्ली में एक बड़ी तादाद में जमा होते जा रहे थे। लेकिन अगर वह इसमें नाकाम हुए तो इसलिए नहीं कि उन्होंने मेहनत और कोशिश नहीं की।

पहले हफ्ते से ही मिर्ज़ा मुग़ल ने बेतहाशा आदेशपत्र जारी किये। उनमें सिपाहियों को शहर से बाहर बने हुए मिलिट्री कैंप में जाने का आदेश था। उन्होंने पुलिस और किले के पहरेदारों को जगह-जगह भेजा ताकि जहां भी बाजारों या हवेलियों में लूटमार मच रही थी, उसको काबू में करें और सिपाहियों से वादा किया कि उनको तंख्वाह मिलेगी और इसके लिए उन्होंने पैसा जुटाने की कोशिशें कीं। सिपाहियों और दिल्ली के लोगों के लिए पर्याप्त खाना मुहैया किया। हर सिपाही की दर्खास्त पर गौर किया, और कुल्हाड़ियों, फावड़ों, खुरपों और रेत की बोरियों का व्यवस्था की ताकि सुरक्षा के लिए खाइयां खोदी जा सकें, और फ़ौज को बहुत सख्ती से आदेश दिया गया कि वह किस तरह बर्ताव करें और कि वह किसी के घर की बगैर अनुमतिपत्र के तलाशी नहीं ले सकते। उन्होंने गूजरों से भी शहर की दीवारों से बाहर रहने के लिए बातचीत की। और एक टकसाल कायम की जिसमें ज़फ़र की तस्वीर के साथ सिक्के गढ़े गये। और उन्होंने अपने मायूस पिता को अपने साथ मिलाने की और अपने भाइयों को काबू करने की भी बहुत कोशिश की।

मिर्ज़ा मुगल का हाथ उस ख़त को लिखने में जरूर था, जो ज़फ़र के नाम से सब राजाओं और नवाबों को भेजा गया जिसमें उनसे दर्खास्त की गई थी कि वह बादशाह से वफादारी दिखाएं और इस बगावत में हिस्सा लें क्योंकि अंग्रेज़ों का हमला हर धर्म पर है। इस ख़त में ख़ासतौर से सती प्रथा बंद करने के कानून, धर्मांतरण करने वालों को जायदाद में हक मिलने के कानून, कंपनी का मिशनरी लोगों को प्रोत्साहन देने, और ब्रिटिश जेलों में कैदियों को ज़बर्दस्ती ईसाई बनाने की कोशिशों का जिक्र था। इसमें लिखा था कि “अंग्रेज़ कौम वह है जो हर मजहब को ख़त्म करना चाहती है। मेरा पक्का विश्वास है कि अगर अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान में रहने दिया जाएगा, तो वह निश्चित रूप से हमारे सब मजहबों का खात्मा कर देंगे। हम सबको (हिंदू और मुसलमान) मिलकर उनके कत्ले-आम में हिस्सा लेना चाहिए। सिर्फ इसी तरह हमारी जिंदगियां और मजहब बचे रह सकेंगे।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here