1857 की क्रांति: क्रांति के दरम्यान अगस्त महीने के आखिर तक भूख और ज़्यादा बड़ी परेशानी बन गई थी। 30 अगस्त को कुछ और भूखे और खस्ताहाल सिपाही किले में आए और कहा कि अगर हमें खाना नहीं मिला, तो हम इसे जारी नहीं रख सकेंगे।
उन्होंने इल्तेजा कीः
“हुजूर जबसे हम यहां आए हैं हम खाकसारों ने अपने आपको आपके कदमों में बिछाया हुआ है। लेकिन आपने हमारे लिए कोई गुज़ारा नहीं दिया। हम जो कुछ भी लेकर आए थे वह सब खत्म हो गया। अगर आप हमें कुछ अता नहीं कर सकते, तो हमें साफ बता दीजिये। यहां इस कदर भूख है कि हमारे पास और कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि हम बादशाह सलामत से नाता तोड़कर कहीं और चले जाएं।
इस शहर में हुजूर के अलावा हर कोई, जिसमें हुकूमत के अफसर भी शामिल हैं, शहर में, लोग अपने-अपने दरवाज़े बंद किए अंदर छिपे बैठे रहते थे और जैसे भी मुमकिन था गुज़ारा कर रहे थे। जैसे-जैसे अगस्त गुज़रता गया, जैसा कि ग़दर की उस जमाने की दर्खास्तों से पता चलता है, दिल्ली एक तबाहो-बर्बाद, भुखमरी का शिकार और लावारिस शहर होकर रह गई थी। जुआरी, और जैसा कि अर्जियां देने वालों ने लिखा, ‘बदमाश, गुंडे और बदकिरदार लोग’ दिन भर उन जले घरों में जो सिपाहियों ने लूट लिए थे, या जिन पर अंग्रेजों के तोप के गोले बरसे थे, बैठे ताश खेलते रहते थे।
फैज बाजार के रहने वाले मीर अकबर अली की दर्खास्त में शिकायत थी कि जुआरी उन खंडहरों के ऊपर इसलिए बैठे रहते थे ताकि वह उनके जनाना सहन के अंदर झांक सकें, ‘औरतों को घूर सकें और घटिया फिकरे कस सकें’। ज़्यादातर दुकानें बंद और खाली थीं, सिवाय उनके जिन पर सिपाहियों ने अपने रहने के लिए कब्जा जमा लिया था। वहां कुछ निरुत्साही सिपाही सीढ़ियों पर बैठे ‘भंग या चरस’ का नशा करते दिखाई देते थे।
कानून व्यवस्था का बुरा हाल था। भूखे सिपाहियों के दस्ते अब भी सुरक्षा शुल्क की मांग करते नजर आते, खासकर चांदनी चौक के दुकानदारों से। कुछ इर्द-गिर्द के घरों में अपनी भूख मिटाने के लिए छापे मारते दिखाई देते। ग्वालियर कैवैलरी जो फ्रेंज गोटलिब कोहन (फरासू) की दिल्ली वाली हवेली में ठहरी हुई थी और जिसने अभी तक बहुत धैर्य से काम लिया था, वह भी आखिरकार आपे से बाहर हो गए और उन्होंने करीबी मुहल्ले में जाकर लूटमार शुरू कर दी। वापसी में उन्होंने पुलिस चौकी जाकर सफाई दी कि हमको कुछ खाने को नहीं मिला इसलिए हमें इस मुहल्ले को लूटना पड़ा। शहर की दीवारों के बाहर हालात और भी ज़्यादा खराब थे; जून से घास काटने वाले भी बगैर सैनिक सुरक्षाकर्मियों के शहर की दीवारों के पार जाने से इंकार कर रहे थे।
गरीबों के लिए, शहर के साहूकार भी उतनी ही बड़ी मुसीबत थे, जितने शहर में जमा सिपाही या रिज पर जमे अंग्रेज। हालांकि यह बनिए शहर के अफसरों के सामने गरीबी का रोना रोते थे और बगावत के लिए पैसा निकालने में मजबूरी जाहिर करते थे लेकिन अपना कर्जा वापस मांगने के लिए उन्होंने बहुत सरगर्मी दिखानी शुरू कर दी थी और ग़दर के काग़ज़ों में अर्जियों के पहाड़ मौजूद हैं, जिसमें दिल्ली के गरीबी के मारे लोगों ने उनके जुल्मो-सितम के बारे में शिकायत की है। मसलन, 16 अगस्त को दिल्ली दरवाज़े के पास रहने वाले लोग लाला जाटमल और उसके साथियों की शिकायत लेकर बादशाह के सामने आए और शिकायत की कि वह घुड़सवार और सिपाहियों के साथ आया था,
“उसने धमकियां दीं और बेबस औरतों, विधवाओं और भिखारियों तक को नहीं छोड़ा। हुजूर, लाला जाटमल ने बहुत ज़बर्दस्ती और जुल्म किया और हर घर से पैसा वसूल किया। हम गरीब दो वक़्त की रोटी को भी मोहताज हैं। उसको बहुत कड़ी सजा मिलनी चाहिए क्योंकि उसने बिल्कुल गैरकानूनी और दुष्ट तरीके इस्तेमाल किए। अगर हुजूर ऐसा करेंगे तो आगे चलकर दूसरे लोग इस तरह धमकाने और ज़बर्दस्ती करने से डरेंगे।”
चूंकि पुलिस की कोई खास व्यवस्था नहीं थी, इसलिए लोगों को पुराने बदले चुकाने का आसान मौका मिल गया। एक अर्जी मुहल्ला मालीवाड़ा के रहने वालों की तरफ से आई। उसमें शिकायत थी कि दो ताकतवर औरतें राधा और कन्हैया जिन पर उन्होंने पहले मुकद्दमा किया था, अब बदला लेने पर उतर आई हैं। ‘अब वह हमें धमकी देती हैं और कहती हैं कि तुमने हम पर मुकद्दमा चलाकर हमको नुकसान पहुंचाया है। अब कोई हुकूमत नहीं है, इसलिए हम तुम पर हमला करेंगे। हम सबको अपनी जान का खतरा है। मेहरबानी करके कोतवाल से कहा जाए कि वह इस मामले की तफ्तीश करें।’