1857 की क्रांति: विद्रोही दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। 11 मई की दोपहर को कोई तीन बजे के करीब हालात और भी बिगड़ गए। किले में जमा सिपाही बेचैन होने लगे और जफर के कमरों के पास आकर खड़े हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बादशाह वहां आने और अपनी ख़िदमत पेश करने के इनाम में उन्हें सोने-चांदी से नवाज़ेंगे। इसके बजाय शहर में उनका कोई ख़ास स्वागत नहीं हुआ और किले में तो सभी उनके खिलाफ थे। वह इतनी दूर से दिल्ली सिर्फ बादशाह की पनाह हासिल करने आए थे लेकिन सिवाय उन पहले सवारों के जिन्होंने बुर्ज के नीचे से सुबह-सुबह बादशाह को पुकारा था और किसी ने उनकी झलक भी नहीं देखी।

चार बजे के करीब उनके लीडर ने जफर को पैगाम भिजवाया कि वह अपने मजहब के लिए जंग करने और बादशाह सलामत की खिदमत में अपनी ताबेदारी दिखाने आए हैं।” इसके बावजूद भी जब बादशाह बाहर नहीं आए तो सब सिपाही दीवाने-खास के सामने के सहन में जमा हो गए और, जफर के वकील गुलाम अब्बास के मुताबिक, ‘उन्होंने अपनी बंदूकों और पिस्तौलों से हवा में फायरिंग शुरू कर दी जिससे खूब शोरो-गुल होने लगा।’

यह शोर सुनकर बादशाह बाहर आए और दीवाने -ख़ास के दरवाज़े से अपने ख़िदमतगारों को आदेश दिया कि उन सिपाहियों से कहें कि यह शोर बंद करें और उनके अफसर आगे आएं और बताएं कि इस सब हंगामे का क्या मतलब है। यह सुनकर सब ख़ामोश हो गए और उनका अफसर घोड़े पर सवार आगे बढ़ा और उसने कहा कि हमसे कारतूस की गोली को जिस पर सूअर और गाय की चर्बी चढ़ी थी, दांतों से काटने के लिए कहा गया। यह हिंदू और मुसलमान दोनों मजहबों के ख़िलाफ़ है। इसलिए हमने मेरठ के अंग्रेजों को मार डाला और अब बादशाह की पनाह में आए हैं।

“बादशाह ने जवाब दिया कि ‘हमने तुम लोगों को नहीं बुलाया और तुमने बहुत गलत काम किया है।’ यह सुनकर कोई सौ-दो सौ बागी सिपाही सीढ़ियां चढ़कर ऊपर दीवाने-खास में आ गए और कहने लगे कि ‘अगर आप, बादशाह सलामत, हमारा साथ नहीं देंगे तो हम सबको मार दिया जाएगा और इस सूरत में हम अपने लिए जो भी कर सकते हैं वह करेंगे’।”

जफर कुछ देर उन लोगों से बहस करते रहे–जो कि सामान्य दरबार में कभी नहीं देखा गया था–और उन्होंने उनको अंग्रेजों का कत्ल करने पर फटकार लगाई।” एक दरबारी अब्दुल लतीफ का कहना है:

किले के दरबार में अजीब लड़ाई-झगड़े का माहौल था। बादशाह सलामत उस शतरंज के बादशाह की तरह हो रहे थे जिसको मात दे दी गई हो। बहुत देर तक तो उन्होंने सब्र से काम लिया, लेकिन आखिर उन्हें कहना पड़ा, ‘एक बूढ़े आदमी के साथ क्यों इतनी बेइज्जती का सुलूक किया जा रहा है और इस हंगामे की क्या वजह है? हमारी जिंदगी का सूरज ढल रहा है। यह हमारे आखरी दिन हैं। हम बस सुकून और तन्हाई चाहते हैं। सारे दरबारियों को उन सिपाहियों के बर्ताव पर बहुत गुस्सा था और उन्होंने भी उनसे बहुत बहस की। लेकिन उनको मजमे ने खामोश करा दिया और उनको वापस अपनी जगह पर जाना पड़ा। अहसनुल्लाह खां ने सिपाहियों से कहा, “तुम लोगों को अंग्रेज़ी नौकरी में तख्वाह पाने की आदत है। बादशाह के पास कोई ख़ज़ाना नहीं है, वह कैसे तुम्हें तख्वाह दे सकते हैं? और जफर ने भी फिर उनसे बहस की और कहा, “न हमारे पास फौज है, न हथियार और ना ही ख़ज़ाना, हम किस तरह तुम्हारी मदद कर सकते हैं? ” “हम सारे मुल्क से लगान वसूल करके आपका खजाना भर देंगे। हमें सिर्फ आपका संरक्षण चाहिए बाकी सब हम खुद मुहैया कर देंगे। फिर काफी देर तक खामोशी रही जिसमें जफर सोचते रहे कि उनको क्या करना चाहिए।

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