1857 की क्रांति: जनवरी 1858 के आखिर में, जब बहादुर शाह जफर के दरबार के सारे रईसों और उमरा पर मुकद्दमा चलाकर उन्हें फांसी दे दी गई थी, तो खुद जफर पर मुकद्दमा चलने की बारी आई।

1857 की शरदऋतु और शुरू जाड़े में जबकि हिंदुस्तान के पूर्वी इलाके में लखनऊ की लड़ाई अभी भी जारी थी, दिल्ली के ब्रिटिश प्रशासन की सारी कोशिशें उस इंसान के ऐतिहासिक मुकद्दमे की तैयारी में लगी थीं, जो बजाहिर मुग़लों का आखरी वारिस होने वाला था। लाहौर से अनुवादक भेजे गए जो उन बेशुमार काग़ज़ात का अनुवाद करने में मदद कर रहे थे, जो किले के दफ़्तर और क्रांतिकारियों  के कैंप से बरामद हुए थे।

होडसन ने जफर को जो जिंदगी की जमानत दी थी उसकी वैधता और बाध्यता पर बहुत तफ्सील से छानबीन की जा रही थी। बादशाह के मुकद्दमे का स्वभाव और उन पर लगाए जाने वाले इल्जामों के बारे में भी बहुत बहस हुई। आखिर में यह फैसला हुआ कि गारंटी कानूनी रूप से लागू होगी, हालांकि वह लॉर्ड कैनिंग के बार-बार उसके खिलाफ लिखने के बावजूद दी गई थी। यह भी तय हो गया कि एक मिलिट्री कमीशन ज़फ़ पर ‘बगावत, कत्ल और गद्दारी’ के और ब्रिटिश रिआया ‘होने को स्वीकार न करने’ का इल्जाम लगाएगा। और यह कमीशन जनवरी 1858 के आखिर में सारे इल्जाम सुनने बैठेगा। मेजर हैरियट जिसने बड़ी कामयाबी से ज़फ़र के खानदान और दरबार के ज़्यादातर लोगों पर मुकद्दमा चलाकर उनको फांसी पर लटका दिया था, अब उस इंसान पर मुकद्दमा चलाने वाला था जिसके बारे में वह पहले ही स्पष्ट कर चुका था कि वह ‘क्रांतिकारियों  का प्रमुख नेता’ था।

जिस बात पर बिल्कुल बहस नहीं की गई, वह यह थी कि कंपनी को कानूनन ज़फर पर मुकद्दमा चलाने का हक था या नहीं। हालांकि कंपनी का कहना था कि ज़फर उससे वजीफा पाते थे इसलिए वह कंपनी के वजीफाख्वार थे और इसलिए उसकी रिआया थे, लेकिन असली कानूनी मसला बहुत पेचीदा था। कंपनी को पूर्व में कारोबार करने का 1599 में अधिकार संसद और मलिका के द्वारा दिया गया था, लेकिन उसका हिंदुस्तान पर हुकूमत करने का एक कानूनन मुगल बादशाह की तरफ से दिया गया था, जिन्होंने 2 अगस्त, 1765 को, प्लासी की लड़ाई के बाद, कंपनी को सरकारी रूप से बंगाल में टैक्स जमा करने के लिए नियुक्त किया था। 1832 तक भी, जब जफर पूरे 58 साल के थे, कंपनी अपने आपको मुगल बादशाह का ताबेदार मानती थी।

उनके सिक्कों और मोहर पर भी ‘फिदवी शाह आलम’ (शाह आलम का वफादार गुलाम) खुदा था। 1833 में यह सर चार्ल्स मैटकाफ के आदेश से हटा दिया गया था। तबसे अब तक दोनों पक्षों के कानूनी रिश्ते में कोई बदलाव नहीं आया था। हालांकि कंपनी ने एकतरफा तौर पर नज़र पेश करना बंद कर दिया था और सिक्कों और मोहर पर अपने आपको फिदवी कहना बंद कर दिया, लेकिन कंपनी पर अपने प्रभुत्व को न तो शाह आलम ने त्यागा था, न अकबर शाह ने और न ही जफर ने।

इस नजरिए से, निश्चित रूप से जफर पर एक हारे हुए बादशाह की हैसियत से मुकद्दमा चल सकता था। लेकिन वह कभी भी कंपनी की रिआया नहीं रहे थे, इसलिए उन पर दगाबाजी, या बागी होने का इल्जाम नहीं लगाया जा सकता था। इसके विपरीत, कानूनी रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ दावा किया जा सकता है कि वह ही असल में बागी थी। उन्होंने अपने उन मालिकों के खिलाफ बगावत की थी, जिनकी वह पिछले सौ साल से ताबेदारी की कसम खाते रहे थे।

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