इलाहाबाद में तय हुआ वर्मा में रहेंगे बहादुर शाह जफर

1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर को क्रांति का दोषी ठहराया गया। उन्हें परिवार और नजदीकियों के साथ निर्वासन की सजा दी गई। काफिला दिल्ली से आगे बढ़कर इलाहाबाद तक पहुंच गया। आगे कहां जाना है इसके लिए कैनिंग ने जो उस वक़्त इलाहाबाद में मौजूद था, बहादुर शाह जफर के जेलर ओमैनी से मुलाकात की। उसे बताया कि उसने फैसला कर लिया है कि केप के बजाय बर्मा भूतपूर्व बादशाह के निर्वासन का मुकाम होगा। लेकिन अभी तक वह यह तय नहीं कर पाया था कि वह रंगून में रहेंगे या बर्मा के अंदरूनी हिस्से टोंगू के कैरेन पहाड़ी क्षेत्र में, ‘जिसका फायदा यह है कि वह बिल्कुल अलग-थलग है और आम यात्रियों के रास्ते से इतना दूर है कि कोई अजनबी, खासकर हिंदुस्तान से, हुकूमत की नज़रों में आए बिना वहां नहीं पहुंच सकता’ ।’

इस बीच, ज़फ़र की स्वास्थ्य जांच हुई। डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “बुढ़ापे के कुदरती पतन के अलावा जफर की शारीरिक हालत हमारी उम्मीद से बेहतर है, और अपनी उम्र के लिहाज से वह बिल्कुल सेहतमंद और तंदुरुस्त हैं और किसी भी बीमारी से आजाद हैं। इसलिए कमेटी को उनके समंदर के रास्ते रंगून या पेगू (दक्षिणी बर्मा) के किसी भी इलाके में जाने पर कोई ऐतराज नहीं है। बल्कि हम यह कहेंगे कि पेगू की जलवायु सारे साल अच्छी और एक जैसी रहती है, और वहां हिंदुस्तान के उत्तर-पश्चिमी सूबों की तरह तापमान में जबर्दस्त उतार-चढ़ाव नहीं होते। इसलिए वर्मा का मौसम और जलवायु बुढ़ापे में लंबी उम्र के लिए साजगार है।

यह फैसला करने के बाद कि जफर को किस मुल्क में भेजा जाए, कैनिंग ने रंगून में कमिश्नर मेजर फेयर को वह सारे कायदे-कानून लिखे, जो वहां शाही खानदान के साथ बर्ताव करने में लागू होने चाहिएं। “महामहिम गवर्नर जनरल की इच्छा है कि कैदियों को नज़रबंद कर दिया जाए और उनको किसी से भी संपर्क रखने की इजाजत न दी जाए। न जुबानी और न लिखित, सिवाय उन लोगों के जो उनके साथ हैं… इसका ख्याल रहे कि कैदियों के साथ मेहरबानी और सभ्यता का सुलूक किया जाए और उनका कोई अपमान न हो। ना ही उन्हें कोई तकलीफ हो सिवाय उसके जो उनकी सुरक्षा के सिलसिले में जरूरी हो… उनकी देखभाल उदारतापूर्वक की जाए लेकिन यह जरूरी नहीं है कि उनमें से किसी को पैसे की शक्ल में कोई भत्ता दिया जाए।

“लेफ्टिनेंट ओमैनी के पास कैदियों और उनके साथियों का चार्ज रहेगा। उन्हें रोजाना कैदियों से मिलना होगा और उनकी जरूरतों को पूरा करना होगा। और अगर वह कोई अहम या खास बात देखें, तो बगैर किसी विलंब के आपको सूचना देंगे।

16 नवंबर को पंद्रह लोगों का यह संक्षिप्त काफिला इलाहाबाद से रवाना हुआ और दो दिन बाद मिर्ज़ापुर पहुंच गया और वहां थेम्स नाम के स्टीमर पर सवार हुआ। ओमैनी ने रिपोर्ट दी कि “सरकारी कैदियों को कोई परेशानी नहीं है। खासतौर से बूढ़े कैदी बहुत खुश हैं क्योंकि उन्हें पहली बार जहाज पर चढ़ने का मौका मिला है।

 आहिस्ता आहिस्ता गंगा में बहता यह स्टीमर बनारस के मंदिरों और आलीशान घाटों से गुजरा। उन्हें अंग्रेजों के दो जंगी जहाज भी रास्ते में मिले जो बक्सर की लड़ाई वाले इलाके में उन क्रांतिकारियों  की तलाश में थे जो आसपास नदी पार करना चाहते हों। यहां 1784 में जफर के दादा शाह आलम के जमाने में मुगलों और अंग्रेजों में पहली बार लड़ाई हुई थी, जिसके बाद अंग्रेज़ बंगाल से दिल्ली तक इलाका फतह करने के लिए आगे बढ़े थे।”

रामपुर में, उनके जहाज थेम्स में कुछ खराबी हो गई, तो उन्हें जहाज बदलना पड़ा और वह कॉयल में सवार होकर 4 दिसंबर को कलकत्ता के पास डायमंड हार्बर पहुंचे। फेडायमंड हार्बर से आगे कलकत्ता में हाल ही में तख्त से हटाए गए दो मुस्लिम वंशों के बचे-खुचे निर्वासित लोग रह रहे थे। अवध के भूतपूर्व नवाब वाजिद अली शाह का घराना और मैसूर के टीपू सुल्तान के बेटों का परिवार।

यह दोनों परिवार काफी शान से रह रहे थे-वाजिद अली शाह के पास गार्डन रीच पर एक अच्छा घर था, जबकि टीपू के बेटों को वह घर दिया गया था, जो अब टॉलीगंज क्लब है, लेकिन पूरे 1857 के दौरान उन्हें विद्रोह का केंद्र बनने से रोकने के लिए फोर्ट विलियम में कैद रखा गया था। बहरहाल, यहां ज़फ़र के काफिले को जल्दी से एचएमएस मगारा पर बिठा दिया गया। जहाज ने अपने लंगर खोले और आखरी मुगल बादशाह अपने वतन से दूर चले गए, कभी न वापस आने के लिए।

नदी किनारे खड़े नजारा देख रहे एक शख्स के मुताबिकः 4 दिसंबर को सुबह दस बजे दिल्ली के भूतपूर्व बादशाह को मलिका के जंगी जहाज मगारा में ले जाया गया, जो शाही कश्ती होने के नाते एक अजीब सा दृश्य पेश कर रहा था। उसका प्रमुख डैक शाही कैदी और उनके साथियों के इस्तेमाल के लिए घरेलू फर्नीचर के अलावा गायों, बकरियों, खरगोशों व मुर्गियों, और चावल, दाल जैसे अनाज वगैरा से लदा हुआ था।

59वीं के लेफ्टिनेंट ओमैनी ने जो उनकी कैद के शुरू से ही उनके इंचार्ज रहे थे, उनको उस जहाज पर चढ़ाया, जो शायद उनके सफर के लिए इस्तेमाल होने वाली उनकी आखरी सवारी होगी। “बादशाह के साथ उनकी दो बीवियां थीं (दूसरी पर्दानशीन औरत वास्तव में उनकी बहू शाह जमानी बेगम थीं), जो पूरी तरह ऐसी ढकी हुई थीं कि उनको अंदर ले जाने के लिए मददगारों की जरूरत पड़ी।

बादशाह बिल्कुल टूटे हुए मालूम दे रहे थे और सठियाए हुए से लगते थे, लेकिन उनका पूर्वी किस्म का चेहरा और अंदाज काफी अच्छा था-उनके झुर्रियों से भरे चेहरे में शाही झलक थी और वह बहुत से चोगों और कश्मीरी शॉलों में लिपटे हुए थे। वह काफी स्वस्थ्य थे और वह जहाज के कई अफसरों से जहाज में उनका रुत्बा और दर्जा पूछते सुने गए। “एक बेटा और एक पोता (दरअसल दो बेटे) उनके साथ हैं, जिन्होंने जहाज पर कदम रखते ही सबसे पहले चुरुट मांगे-कुल मिलाकर वह बहुत शांत थे।

भूतपूर्व बादशाह नीचे चले गए और वहां एक तख्त पर तकियों और कुशन के सहारे लेट गए, जो उनके नौकरों ने झटपट तैयार कर दिए थे। उनको और उनके साथियों को बहुत जल्दी जहाज पर चढ़वा दिया गया और फिर 84 रेजिमेंट के गार्ड कलकत्ता लौट गए और मगारा हुगली के पानी में भाप उड़ाता अपनी मंज़िल की तरफ रवाना हो गया।

यह सफर पांच दिन चला। 8 दिसंबर को मगारा खुले समुद्र को छोड़कर ज्वार-भाटा वाली संकरी घाटियों के मिट्टी मिले भूरे दलदली पानी से गुज़रता हुआ, जो इरावड़ी डेल्टा के मुख पर था, रंगून नदी में पहुंच गया। दूर से ही मुसाफिरों को श्वे डागोन पगोडा का सुनहरी शिखर नज़र आ रहा था जो दरिया किनारे की घनी हरियाली के ऊपर से चमक रहा था। ओमैनी लिखता है: “यह पगोडा एक आलीशान नजारा है। मैंने उसे बीस मील की दूरी से ही देख लिया था, जब हम नदी में दाखिल हुए थे। उसमें ईंट के काम की तीन छतें बनी हुई हैं। ऊपर की छत के बीच से एक जटिल सी वास्तुकला सिर उठाती है, जिसमें से एक बुलंद खूबसूरत कलश निकलता है जो पूरा सोने के पतरों से ढका है।

खीझे हुए ओमैनी के अनुसार, रंगून के बंदरगाह पर “वहां के लोगों और अंग्रेजों का एक बड़ा मजमा कैदियों का नजारा करने और उन्हें उनकी रिहाइश की जगह तक जाते देखने के लिए जमा था। और भी ज़्यादा चिढ़ाने वाली बात यह थी कि वहां खाना हिंदुस्तान से कहीं ज़्यादा महंगा था, और घरेलू नौकर भी महंगे थे और वह दिल्ली के ख़ौफजदा और हारे हुए लोगों की तरह सलाम भी नहीं करते थे। गुस्से में भरे ओमैनी ने एक सप्ताह बाद सॉन्डर्स को लिखा, “यहां के लोगों की गुस्ताखी और आज़ादी यकीन से बाहर है। उनका अंदाज़ ऐसा है जैसे वह हमारी नौकरी करके हम पर अहसान कर रहे हैं। उनकी धृष्टता का बयान करने को मेरे पास शब्द नहीं हैं।”

सबसे ज़्यादा गुस्सा दिलाने वाली बात यह थी कि कमिश्नर मेजर फेयर ने जफर के आने की कोई तैयारी नहीं की थी और ना ही उनके ठहरने के लिए कोई मुनासिब मकान तैयार था।

ओमैनी ने लिखाः “मेजर फेयर को यह भी नहीं मालूम कि कैदियों को स्थायी रूप से कहां रखा जाएगा। फिलहाल दो छोटे-छोटे कमरे (जिसमें से कोई भी दिल्ली के घरों के कमरों के बराबर नहीं है) उनके रहने के लिए अलग किए गए हैं जो नई छावनी के इलाके में श्वे डागोन के नजदीक मेन गार्ड के पास हैं, और सेवकों के लिए चार खेमे लगाए गए हैं, जो एक कनात के अंदर हैं। कैदियों को कोई आराम नहीं है। हुकूमत को उनसे इससे बेहतर सुलूक करना चाहिए।

 अगर ओमैनी के लिए रंगून उपेक्षापूर्ण ढंग से प्रतिकूल था, तो ज़फर और उनके साथियों के लिए तो यह जगह और भी अजीब और अजनबी होगी।

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