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जिन लोगों ने बहुत जोशो-खरोश से 1857 की बगावत का स्वागत किया, उनमें वह पांच नौजवान शाहजादे थे, जिनको नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। जब तक यह हंगामा शुरू नहीं हुआ था, उनका भविष्य अंधकारमय था। चाहे मिर्जा जवांबख्त, बहादुर शाह जफर के बाद तख्त पर बैठ सकें या नहीं, चाहे मुगल लाल किले में रह सकें या नहीं, लेकिन उन सबकी किस्मत में तो सिर्फ किले के अंदर की शरीफाना गरीबी ही लिखी थी। इसलिए उन सबके लिए तो यह बगावत अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने का एक दुर्लभ जरिया था। इसलिए फौरन पांचों ने सोचा कि यह ख़ुदा का दिया हुआ मौका हाथ से नहीं खोना चाहिए।

इनमें से चार शाहजादे तो कम प्रतिभा और दरबार में कम मुकाम वाले थे। 1857 से पहले उनका दरबार की डायरी में कोई खास जिक्र भी नहीं है। जफर का नौवां बेटा मिर्जा खिजर सुल्तान था। यह जफर की रखैल रहीम बख़्श बाई से उनका नाजायज बेटा था।

1857 में वह सिर्फ 23 साल का था और अपनी ख़ूबसूरती के लिए मशहूर था। गालिब ने उसे हजरत युसूफ की तरह खूबसूरत कहा है। उसमें कुछ शायराना योग्यता भी थी और वह एक अच्छा निशानेबाज भी था। लेकिन दरबार की डायरी में उसका जिक्र सिर्फ एक बार किया गया है, जब उसने 1852 में अपने पिता से हाथी और महरौली में एक मकान की फरमाइश की थी, जिसे फौरन ठुकरा दिया गया था। शायद इस वजह से कि वह मिर्जा फखरू के करीब था, जो उस समय शाही नाराजगी का शिकार था। उसकी बीवी और मिर्जा फखरू की बीवी बहुत करीबी सहेलियां थीं।”” दरबार की डायरी में दूसरी बार उसका जिक्र और भी कम महत्व रखता है, जब एक बार उसे जफर ने भरे दरबार में डांटा था, क्योंकि उसने अपनी बीवी पर हाथ उठाया था और फिर ‘वह ज़फ़र के पांव पर गिर गए और अपनी गलती की माफी मांगी। जफर ने उनको बहुत गुस्से से दो तीन थप्पड़ लगाए और यह कहकर माफ किया कि आइंदा वह अपनी बीवी से अच्छा बर्ताव करें।

मिर्जा खिजर दूसरे शाहजादे अबूबक्र का बहुत करीबी दोस्त था, जिसने बागियों की तरफदारी की थी। मिर्जा अबूबक्र मिर्जा फखरू का सबसे बड़ा बेटा था और ज़फर का सबसे बड़ा जिंदा जायज पोता। 1857 से पहले उसका जिक्र सिर्फ एक बार किया गया, जब नवंबर 1853 में उसने एक हादसे में अपनी ही बंदूक से अपनी उंगली उड़ा दी थी। लेकिन ग़दर के जमाने में उसने खोए हुए समय की भरपूर भरपाई की। शाही घराने में सबसे ज़्यादा उसने इन नए हालात का फायदा उठाया और पूरी तरह अय्याशी पर उतर आया। बादशाह के पास रोजाना उसके खिलाफ अर्जियां और शिकायतें आने लगीं, जिनमें उसकी बदचलनी, शरावनोशी, नौकरों से मारपीट और चौकीदारों को पीटने की शिकायतें आतीं और अगर कोई पुलिसवाला उसे रोकने की कोशिश करता, तो वह उस पर भी हमला करने की कोशिश करता।

तीसरा शाहजादा और भी गुमनाम था। 1857 से पहले उसके बारे में सिर्फ इतना मालूम था कि वह ज़फ़र का ग्यारहवां बेटा था और उनकी एक रखैल हांवा की नाजायज औलाद था। वह 1839 में पैदा हुआ था और 1852 में उसकी मिर्ज़ा फख़रू की बेटी से शादी हुई थी।”

चौथा बागी शहजादा, मिर्जा अब्दुल्लाह भी जफर का पोता था। जो जफर के सबसे बड़े बेटे मिर्जा शाहरुख का बेटा था, जिसकी 1847 में मौत हो गई थी। अपने पिता के मरने के बाद वह और उसकी मां खैरम बाई, जो शाहरुख की रखैल थी, हज के लिए मक्का चले गए, जहां से वह दिसंबर 1853 में वापस आए। जफर ने उसे हज करने के इनाम में एक शानदार सफेद घोड़ा तोहफे में दिया। उसके बाद वह दरबार के रिकॉर्ड से बिल्कुल गायब हो गया और फिर मई 1857 में सामने आया।”

लेकिन पांचवां शहजादा इन चारों से बिल्कुल भिन्न था। उसने जल्द ही अपने आपको इस बगावत के टूटे-फूटे निजाम का नेता मान लिया। मिर्जा मुगल जफर के पांचवां बेटे थे और उनके जिंदा जायज बच्चों में सबसे बड़े। 1857 में वह 29 साल के थे और अपनी प्रभावशाली सौतेली मां जीनत महल से सिर्फ नौ बरस छोटे। उनकी अपनी मां एक सैयदानी थीं, जो एक अमीर खानदान से थीं और उनका नाम शरफुल महल सैयदानी था। वह ज़फ़र हरम में एक ऊंचा दर्जा रखती थीं।” बाकी के चार शहजादों के विपरीत मिर्जा मुगल का बगावत से पहले दरबार के रिकॉर्ड में काफी जिक्र है। उनका दरबार में काफी अहम दर्जा था। फरवरी 1852 में मिर्ज़ा फख़रू के पतन के बाद उनको बहुत फायदा हुआ था और उनके बदले उसको किले के नाजिर और किलेदार का अहम दर्जा दिया गया था। मिर्ज़ा फख़रू की आमदनी और जायदाद, जो उस ओहदे के साथ उनको मिलती थी, वह भी मिर्जा मुगल के नाम हो गई।” यह ऊंचा दर्जा उन्हें जीनत महल से साज-बाज करने की वजह से मिला, जो उनकी संरक्षक बन गई थीं। उन्होंने उनको हमदर्दी देकर इसलिए बढ़ाया ताकि वह मिर्ज़ा फखरू का तोड़ कर सकें। दरबार की डायरी में एक जगह दर्ज है कि जब उन्होंने मिर्ज़ा फखरू की जगह वलीअहद नियुक्त होने की मुश्किलों के बारे में मशवरा किया, तो उन्होंने कहा कि तुम इसकी फिक्र नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।”

आज मिर्जा मुगल की दो तस्वीरें मौजूद हैं। एक 1838 में जफर की ताजपोशी की है, जिसमें वह एक गंभीर दस वर्षीय लड़का हैं जो पूरे दरबारी लिबास पहने है। लेकिन 1850 के दशक के आरंभ की ऑगस्ट शोफ्ट की एक पेंटिंग में वह एक सुंदर, जोशीले और चुस्त जवान के रूप में हैं। ” वह सफेद लिबास में हैं, जो उनके सांवले रंग, भूरी आंखों और घनी काली दाढ़ी को स्पष्ट कर रहा है। अगर शोफ्ट ने जफर की तस्वीर में उनको एक थका हुआ, बेजान और उदास बूढ़ा दिखाया है, तो मिर्ज़ा मुग़ल की तस्वीर उसके विपरीत एक बेचैन, बेसब्र और उदासीन से नौजवान की है जो गर्व, कड़वाहट और दबे गुस्से से भरा तस्वीर से झांक रहा है।

हालांकि मिर्जा मुगल भी इस तस्वीर में उतने ही जवाहरात पहने हैं, जितने उनका भाई जवांबख्त और उसके पिता, लेकिन इस तस्वीर में नजर खासतौर से उनके चेहरे के भावों से हटकर उनकी तलवार और खंजर पर पड़ती है। और किसी को शक नहीं रहता कि वक्त आने पर वह उनको इस्तेमाल कर सकते हैं। उनके चेहरे पर ऊर्जा और दुनिया से मुकाबला कर सकने की हिम्मत झलकती है, जो उनके पिता के विनम्र और आध्यात्मिक चेहरे से बिल्कुल गायब है। उनके चेहरे पर एक गंभीरता और खिंचाव भी हैं, जो उनके छोटे भाई के घमंडी चेहरे पर बिल्कुल नहीं है। इस सबके बावजूद उनकी आंखों में ज़फ़र की तरह आत्म-विश्वास की कमी भी झलकती है। हालांकि मिर्ज़ा मुग़ल के बारे में इस तरह की कोई जानकारी नहीं है कि बगावत के पहले दिन जब सिपाही दिल्ली आए थे, तो वह कहां थे।

लेकिन 12 मई को सुबह वह दरबार में अपने छोटे भाइयों के साथ हाजिर हुए और सबने ‘दर्खास्त की कि उनको फौज का कमांडर बनाया जाए।’ ज़फ़र ने ज़ीनत महल और हकीम अहसनुल्लाह खां के मशवरे से यह दर्खास्त नामंजूर कर दी और अहसनुल्लाह खां ने कहा कि उनकी उम्र और तजुर्बा इस काबिल नहीं कि उनको कमांडर बनाया जाए और वह फौज के अफसरों की जिम्मेदारी को समझ पाएं। वह यह सुनकर बहुत नाखुश हुए और अगले दिन फिर फौज के अफसरों के साथ वापस आए, जिन्होंने उनकी सिफारिश की। फिर ज़फर और अहसनुल्लाह खां ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। जफर ने कहा कि “तुम्हें यह काम करना नहीं आता। तुम अफसर बनकर क्या करोगे?” लेकिन शहजादे और अफसर अपनी बात पर अड़े रहे। यहां तक कि दो दिन बाद 15 मई को वह अलग-अलग कमांडरों के ओहदे पर नामजद हो गए और उनको लिबासे-फाखरा दिया गया और सिपाहियों की मर्जी से मिर्ज़ा मुग़ल को कमांडर-इन-चीफ का ख़िताब दिया गया।  यह मुमकिन है कि मिर्ज़ा मुगल ने अपने भाइयों अबूबक्र और खिजर सुलतान के साथ बगावत शुरू होने से पहले से बागियों से संपर्क किया हो। कम से कम ज़ीनत महल का तो यही कहना है।

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