आर्थिक मदद नहीं करने पर दुकानों को तोप से उडाने की भी दी गई धमकी
1857 की क्रांति: नीमच ब्रिगेड ने बहादुर शाह जफर को खाने की सुविधा प्रदान करने के लिए पत्र लिखा। उस समय तो नीमच ब्रिगेड को मनाकर रोक लिया गया, हालांकि फौरन न तो खाना उपलब्ध था और न ही पैसा। लेकिन अंग्रेजों के जासूसों ने सूचना दी कि फरार होने वाले सिपाहियों का तांता बंध गया है।
जासूस तुराब अली के बयान के मुताबिक सिर्फ अगस्त के पहले हफ्ते में 750 घुड़सवार और 600 जिहादी अपने घर लौट गए… ‘क्योंकि शहर में उनको रोजमर्रा की रोटी तक नहीं मिल सकी।’
जुलाई और अगस्त के पूरे महीनों में मिर्जा मुगल के कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन ने बेहद कोशिश की कि कहीं से भी पैसे मिल जाएं ताकि सिपाहियों के खाने और खर्च की व्यवस्था हो सके। पहले उन्होंने शहर के साहूकारों से कर्जा लेने की कोशिश की, लेकिन उनको सिर्फ 6,000 रुपए ही मिल सके जो सिर्फ चंद दिनों के लिए काफी थे। चांदनी चौक के थानेदार को कटरा नील के बनियों से पैसे उघाने का काम दिया गया, लेकिन उसने रिपोर्ट दी कि उनमें से ज़्यादातर लोग अपने घरों के अंदर गायब हो गए और बाकी जवाब नहीं दे रहे, और कुछ एक न एक बहाना बनाकर इस सेवक को टाल देते हैं और हमेशा ही पैसा न देने की कोई सूरत निकाल लेते हैं।”
एक महीने के बाद भी यही कहानी थी, ‘यह सेवक जब भी उनके घर जाता है, तो वह दरवाजे बंद कर लेते हैं और कोई जवाब नहीं देते और फिर गायब हो जाते हैं।’
इस रिपोर्ट के आखिर में मिर्जा मुगल के हाथ की लिखी हुई चंद लाइनें हैं जिन पर उनकी मुहर लगी है, जिसमें सख्त तरीके इस्तेमाल करने के निर्देश थे। ‘हुक्म जारी कर दो कि अगर यह साहूकार इसी तरह घर में छिपे रहेंगे, तुम उनको तोपों से उड़ा दोगे।’ तो एक पैगाम लक्ष्मीचंद को भेजा गया, जो मथुरा का एक बहुत अमीर साहूकार था। उसे प्रस्ताव दिया गया कि अगर वह पांच लाख रुपए कर्ज दे तो उसे फोतेदार (खजांची) का ओहदा दिया जाएगा।
उसका जवाब था कि वह मदद करने की स्थिति में नहीं है। इसके इंतकाम में उसके दिल्ली के कारिंदे को कैद कर लिया गया और बरेली के सिपाहियों के कैंप में ले जाया गया, जहां उसके साथ ‘बदसुलूकी की गई’। मगर यह सच है कि मेरठ के बनिए बगावत के शुरू में क्रांतिकारियों के हाथों लूटे और मारे गए। इसलिए बाद में उन्होंने अंग्रेजों की मदद करने के लिए एक फौज जमा करनी शुरू कर दी थी।