बहुमंजिली इमारतें, सड़कों का जाल, फर्राटा भरते वाहन, हवा संग बातें करती मेट्रो, एक दूसरे शहर को जोड़ने को फैला रेलवे का जाल, विकास की बयार ने दिल्ली शहर को जबसे छूआ है शहर मानों कुलांचे भर रहा है। तरक्की की इबारत हर क्षेत्र में लिखी जा रही है। लेकिन इन सबके बीच वो शहर कहीं गुम होता जा रहा है जो यादों में आज भी जिंदा है। जिसके निशान पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों से लेकर दक्षिणी दिल्ली समेत अन्य इलाकों में आज भी दिखाई देते हैं। वो स्मारक, दरगाह, मकबरे, मस्जिद, मंदिर जो कालोनियों की भीड़ में पनाह मांगते हैं। ये स्मारक जो अपने अंदर ऐतिहासिक कहानियां समेटे हुए हैं। जिनकी हर दरो दीवार बोलती है। ये स्मारक जो आबादी की भीड़ में कहीं गुम होते जा रहे हैं अब दोबारा बोल रहे हैं। राना सफवी की जहां पत्थर बोलते हैं (व्हेयर स्टोन्स स्पीक) की दूसरी कड़ी में दिल्ली के भूले शहर(द फारगॉटन सिटी आफ दिल्ली) ऐतिहासिक महत्व के इलाकों एवं विभिन्न स्मारकों के बारे में जानकारी देती है। यह किताब दिलचस्प तरीके से सिरी, आरकेपुरम, तुगलकाबाद सरीखे इलाकों के इतिहास से रूबरू कराती है एवं इनके वर्तमान स्वरूप की भी जानकारी देती है।
स्वर्णिम इतिहास
राना सफवी कहती हैं कि दिल्ली अपने आगोश में कई शहर का इतिहास समेटे हुए है। यदि तोमर को दिल्ली पर शासन करने वाला पहला राजवंश मान लिया जाए जिसका एतिहासिक दस्तावेज मौजूद है तो भी इसके बाद 1857 तक नौ राजवंशों ने दिल्ली पर शासन किया। इनमें तोमर, चौहान, गोरी, दास राजाओं, खिलजी, तुगलक, सैय्यद, लोदी, मुगलों ने शासन किया। इन सभी ने अपने मुताबिक शहर बसाया। जिसका परिणाम है कि दिल्ली का 1500 सालों का गौरवपूर्ण इतिहास बना। दिल्ली के बसने-उजड़ने के बीच पहले शहर यानी महरौली से आखिरी शहर शाहजहांनाबाद तक की गलियों में इतिहास की कहानियां भरी पड़ी है।
22 अक्टूबर 1296 को राज्याभिषेक
खिलजी साम्राच्य में सिरी किले का काफी महत्व था। इस किले का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने करवाया था और मंगोल आक्रमण से दिल्ली और सीरी को बचाए रखने में किले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किसी भी दूसरे शासक द्वारा किले पर कब्जा नही किया गया लेकिन कुछ शासको ने किले को काफी क्षति पहुचाई है। उन्होंने किले की सामग्री का उपयोग खुद की इमारतो के निर्माण के लिए किया था। सिरी को बाद में दारुल खिलाफत या खालीफत की सीट के नाम से जाना जाने लगा। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का मुख्य रेसिडेंट शहर अथवा किला राय पिथौरा था। सिरी(सर या श्री) शब्द की उपाधि मंगोलों को शिकस्त देने की वजह से मिली। अक्टूबर महीने की 22 तारीख को खिलजी ने दिल्ली स्थित बलबन के लाल महल में खुद का राज्याभिषेक कराया था। किताब में जिक्र है कि सिरीफोर्ट का निर्माण बहुत ही ठोस पत्थरों से हुआ था, कुल सात गेट थे। इब्न बतूता ने अपनी यात्रा में लिखा है कि सिरीफोर्ट की दीवारें 17 फीट मोटी थी। सिरीफोर्ट के कुछ हिस्से शाहपुर जाट इलाके में देखे जा सकते हैं। सिरीफोर्ट 1321 तक दिल्ली सल्तनत की राजधानी रही। इसके बाद राजधानी सिरीफोर्ट से तुगलकाबाद स्थानांतरित हो गई थी। जिसे सुल्तान गयासुद्दीन ने बनवाया था। जब बादशाह शेरशाह ने शेरगढ़ शहर बसाया तो इसे बनाने में सिरीफोर्ट से काफी सामग्री ली गई थी। वर्तमान में सिरीफोर्ट की स्थित शाहपुर जाट, हौजखास विलेज, सिरीफोर्ट और ग्रीन पार्क तक है।
जानें सिरीफोर्ट का चप्पा चप्पा
किताब में सिरीफोर्ट के तहत मोहम्मद वाली मस्जिद, तोहफेवाला गुंबद, थानेवाला गुंबद, बुलबुलिकी, दरगाह मखदूम सब्जबारी, नीली मस्जिद, हौजखास गुमटी, दादी पोती का गुंबद, छोटी गुंबद, सकरी गुमटी, ईदगाह, चोर बाजार, हौज ए इलाही/हौज खास, मदरसा सुल्तान फिरोज शाह, सुल्तान फिरोज शाह का मकबरा, बाग-ए-आलम, दरगाह बीबी फातिमा साम, बीरन का गुंबद के बारे में जानकारी दी गई है। राना सफवी लिखती हैं कि मोहम्मद वाली मस्जिद का कई सालों तक लोग बतौर स्टोर प्रयोग करते थे। सन 1924 में एएसआई ने स्टोर हटवाया। जबकि तोहफेवाला गुंबद की कहानी भी काफी दिलचस्प है। यह मस्जिद वर्तमान शाहपुर जाट में स्थित है। हालांकि इस तक पहुंचाना टेढ़ी खीर है। कारण, यह दुकान एवं आवासीय कालोनियों से घिरा हुआ है। व्यवसायीकरण ने इतिहास को ढंक दिया है। गुंबद के नीचे एक झरोखा है, तीन प्रवेश द्वार है। मेहराब काफी साधारण है। यहां बारादरी/ थानेवाला गुंबद भी काफी प्रसिद्ध था। लिखती हैं कि इसके नाम को लेकर काफी संशय है। कुछ इसे तोहफेवाला गुंबद जबकि कुछ थानेवाला गुंबद कहकर पुकारते हैं। बशरुद्दीन अहमद ने इसे बारादरी ही कहा है। बारादरी में 12 दरवाजे होते हैं। किताब में एक स्थानीय निवासी का हवाला देकर कहा गया है कि वर्तमान में आवासीय कालोनियों से यह घिरा हुआ है। पहले इसके अंदर पांच परिवार रहते थे। अब जबकि शाहपुर जाट एरिया काफी महंगा हो चुका है तो यह खाली हो चुका है। सफवी नीली मस्जिद के बारे में लिखती हैं कि दिल्ली वक्फ बोर्ड के अधीन है। सुल्तान सिकंदर शाह ने इसे बनवाया था। वहीं एएसआई अधिकारी कहते हैं कि मस्जिद के निर्माण में नीली टाइल्स का इस्तेमाल किया गया था। जिस कारण इसे नीली मस्जिद कहते हैं। मस्जिद की दीवारों पर कुरान की रुकू, कलमा और कुछ अहादिस (मोहम्मद साहब ने अपनी जुबां से जो कहा था) को उकेरा गया था। हालांकि इसमें से बहुत कुछ अब मिट चुका है।
दादी-पोती का गुंबद
लोदी काल में बना यह मकबरा हौजखास विलेज में स्थित है। 52 स्कवायर फीट ऊंचे गुंबद को दादी या फिर बीबी का गुंबद जबकि 38 फीट स्कवायर फीट ऊंचे गुंबद को पोती और बंदी का गुंबद कहकर बुलाया जाता है। किताब में स्थानीय निवासियों के हवाले से कहा गया है कि मकबरे का निर्माण एक महिला ने करवाया था। बड़ा अपने लिए जबकि छोटा अपनी बंदी के लिए बनवाया था। हालांकि इसमें सत्यता नहीं है।
चोर मीनार की दिलचस्प कहानी
पॉश इलाके हौजखास में एक बहुत ही दिलचस्प स्मारक स्थित है। इसे चोर मीनार या फिर टॉवर ऑफ चोर भी कहा जाता है। इसका निर्माण खिलजी वंश के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने करवाया था। इस मीनार में 225 छेद हैं। स्थानीय किंवदंतियों की मानें तो यहां चोरों के कटे हुए सिर को इन छेदों से लटकाया जाता था। वही कुछ इतिहासकारों का मानना है कि खिलजी राजा इस मीनार का उपयोग मंगोलों से युद्ध में छिपने के लिए करते थे। इस मीनार का इतिहास कुछ भी रहा हो, लेकिन इसको देखने के लिए सैलानियों की भीड़ आज भी उमड़ती है। यह मीनार मलबे, बिना कटे पत्थरों आदि से बनी है।
माई साहिबा की दरगाह
दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन की दरगाह का रास्ता तो सबको पता है लेकिन आईआईटी दिल्ली के पास अधचिनी गांव में करीब 800 साल पुरानी उनकी मां और बहन की दरगाह है जहां बदायूं से आने के बाद उनकी मां रहीं थीं और निजामुद्दीन ने यहीं अपनी शुरूआती शिक्षा ग्रहण की। निजामुद्दीन औलिया अपने पिता के इंतकाल के बाद अपनी माई साहिबा के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए दिल्ली आ गए थे। उस दौरान माई साहिबा ने अधचिनी गांव में ही रिहाइश बनाई थी। सूफी परंपरा में आने के बाद निजामुद्दीन ग्यासपुर चले गए जिसे आज हजरत निजामुद्दीन इलाके के नाम से जाना जाता है लेकिन माई साहिबा यहीं पर रहीं। करीब 800 साल पुरानी माई साहिबा की इस दरगाह में निजामुद्दीन की बहन हजरत बीबी जैनब की भी दरगाह है।
दिल्ली के चप्पे चप्पे पर एतिहासिक स्मारक हैं। हर स्मारक अपनी कहानी लिए हुए है। किताब लिखने के दौरान मैं पूरी दिल्ली घूमी। सिरीफोर्ट इलाके में कई ऐसे स्मारक हैं, जो अपनी पहचान की जद्दोजहद कर रहे हैं। कई जगह गोदाम बन गए हैं तो कहीं जगह लोगों ने स्टोर बना लिया है। कई स्मारक तो आवासीय कालोनियों से घिर चुके हैं। कई जगह वाहनों की पार्किंग हो रही है। कई दफा लोग मुझे स्मारक तक पहुंचने देने से परहेज करते। कारण, कि सारी व्यवस्था अस्त व्यस्त है।
राना सवफी, पुस्तक लेखिका