कहीं पराठे की खुशबू तो कहीं चिकन बिरयानी की महक। हवा में घुलती सीक कबाब और तंदूर की सुगंध का तो कहना ही क्या। पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों में मुगलई जायके की बादशाहत अब भी बरकरार है। करीम, कल्लू निहारीवाला, असलम चिकन कार्नर, रहमतुल्लाह, अलजवाहर की दुकानों पर थाली में मुगलिया जायका आज भी शौक से परोसा जाता है। जिसे लोग ना केवल पसंद करते हैं बल्कि एक बार स्वाद चखने के बाद बार बार आने को मजबूर हो जाते है। समय के साथ स्वाद में कई तरह के एक्सपेरिमेंट किए गए हैं लेकिन ये जायके आज भी पुरानी दिल्ली में मुगलिया नाम से ही पसंद किए जाते हैं। मुगल बादशाहों के किचन से निकल पुरानी दिल्ली की गलियों में जायकों के पहुंचने की कहानी जितनी दिलचस्प है उतनी है लजीज भी।
शाही खानसामों के हाथ का जादू
करीम होटल संचालकों की मानें तो उनके पूर्वज अकबर, जहांगीर और बहादुरशाह जफर के शाही खानसामों में से एक थे। मुगलों को उनके पूर्वजों का खाना इतना पसंद था कि मुगल जहां जाते अपने शाही खानसामों को साथ लेकर जाते थे। करीम के पूर्वजों की मुगलों के यहां नौकरी तब खत्म हो गई जब साल 1857 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने गद्दी से उतार दिया। तब करीम के पूर्वज मोहम्मद अजीज अंग्रेजों के हाथों मारे जाने के डर से अपनी जान बचाकर लाल किले से भाग निकले। वह यूपी के मेरठ से गाजियाबाद चले गए। परेशानी के दिनों में भी उन्होंने अपने बच्चों को मुगल काल की खास रेसिपी बनाना सिखाने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने अपने बच्चों को कहा कि यही उनकी विरासत है, जो उन्हें सीखनी चाहिए। शायद यही कारण है कि करीम आज भी मुगल काल की रेसिपी के आधार पर ही खाना बनाते हैं। सीक कबाब बनाने में ही एक दो नहीं पूरे 45 मसाले डाले जाते हैं। खाने के लिस्ट में बादशाही बादाम पसंदा, सीक कबाब, मटन स्टू, चिकन जहांगिरी, चिकन मुगलई, शान-ए-तंदूर, शाही दस्तर ख्वान, जहांगीरी कोफ्ता,फिरदौसी कोरमा जैसी मुगल समय के रेसिपी हैं। ये रेसिपी अभी भी मुगल काल के समय से तरीके से ही बनाई जाती है।
जायके के शौकीन बादशाह
जहांगीर, जहंदर शाह, मोहम्मद शाह रंगीला और बहादुर शाह जफर खाने के शौकीन थे। अफगानिस्तान, कश्मीरी जायका भी ये पसंद करते थे। मुगल इतिहास के जानकार एवं मुगल जायके पर कई किताबें लिख चुके प्रोफेसर आर नाथ कहते हैं कि मुगल बादशाहों का किचन हकीमों द्वारा तय होता था। बादशाह, फूड टेस्टर द्वारा खाना चखने के बाद ही खाते थे। दरअसल, कहा जाता है कि बाबर को दिलावर बेगम ने खाने में जहर दिया था। जिसके बाद मुगलों में खाना चेक कराकर खाने की परंपरा बन गई। इतिहासकार आर नाथ कहते हैं कि अकबर सिर्फ गंगा का पानी पीता था। बादशाह जब आगरा या फतेहपुर सीकरी में रहते थे तो गंगा जल सोरोन से जबकि पंजाब में प्रवास के दौरान हरिद्वार से मंगवाया जाता था। यदि बादशाह राजपूताना इलाके में जाते थे तो कुम्हारों का समूह उनके काफिले के साथ गंगा जल लेकर चलता था। जबकि शाहजहां यमुना का पानी पीता था। बकौल आर नाथ यही वजह थी कि जब औरंगजेब दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना चाहता था तो शाहजहां ने आगरा में आत्म समर्पण किया। वह काफी लंबा जीते यदि औरंगजेब ने यमुना पानी देने पर पाबंदी ना लगा दी होती।
मुगलों के खाने पर शोधपरक जानकारी देने वाली सलमा हुसैन की अलवन ए नीमत किताब में मुगल किचन की 100 रेसिपी मौजूद हैं। अपनी किताब में लिखती हैं कि वर्तमान में मुगलिया जायका सिर्फ तेल और मसाले के मिश्रण तक सिमट कर रह गया है। जबकि हकीकत यह है कि मुगलों ने कला, संस्कृति के अलावा जायके की समृद्ध विरासत भी दी। हकीम मेन्यू प्लान करता था। खाना बनाते समय ध्यान रखा जाता था कि चावल का एक एक दाना नुकसान ना करे। इसलिए इस पर सिल्वर आयल की कोटिंग की जाती थी। सोने और चांदी की प्लेट में खाना परोसा जाता था। कहती हैं, चूंकि प्रत्येक भोजन समय में कम से कम 100 खाने बनते थे लिहाजा कई सौ लोगों की एक टीम होती थी। जो खाद्य पदार्थो की सफाई से लेकर चॉपिंग एवं कुकिंग करता था। प्रत्येक कुक एक डिश ही बनाता था। मुगल किचन में बारिश के इक्टठा पानी एवं उसमें गंगा, ययमुना जल के मिश्रण से खाना बनाया जाता था। मुगलों के किचन में ईरानी, अफगानी और परसियन खाने की खुशबू आती है। भारत आने पर यह जायका पंजाबी, अफगानी, दक्कन से मिक्स हो गया। जबकि सलमा लिखती हैं कि अकबर हफ्ते में तीन दिन तक शाकाहारी खाना खाता था। किले के अंदर ही सब्जी उगाई जाती थी। सब्जियां महके इसके लिए गुलाब जल से ही सींचा जाता था। जबकि बहादुर शाह जफर को नॉन वेज के अलावा मूंग दाल पसंद था। दिल्ली में यह मूंग दाल बादशाह पसंद के नाम से प्रसिद्ध था।