1857 की क्रांति: 27 जून को दिल्ली में मौसम की पहली बारिश हुई तो रिज इलाके के हालात बहुत खराब हो गए। इसी रिज पर अंग्रेजों का एकमात्र कब्जा था। विद्रोहियों ने लाल किले पर अधिकार जमा लिया था। अंग्रेजी फौजें रिज से विद्रोहियों से लडाई लड रही थी।
होडसन के शब्दों में सारा कैंप ‘एक सुलगती हुई दलदल’ और ग्रिफिथ्स के शब्दों में ‘पानी और मिट्टी का एक गड्ढा बन गया। रॉटन भी अपनी डायरी में लिखता है, “सारा कैंप एक जूहड़ बन गया और उसमें से बहुत तेज बदबू आने लगी। सांपों को भी बिल छोड़कर बाहर आना पड़ा और लोग उनसे लगभग उतने ही ख़ौफजदा थे, जितने दुश्मनों के हमले से।” ‘छोटे केकड़ों के बराबर’ काले बिच्छू भी अक्सर बिस्तरों में रेंगते हुए पाए जाते और रात को सोना भी नामुमकिन हो गया। सीलन और बदबू से पहले ही जीना मुहाल था कि तोप के गोलों का फटना, गीदड़ों की खरखराहट, कुत्तों का भौंकना होता था।
जैसा कि दिल्ली गजट एक्स्ट्रा ने लिखा था कि ऊंटों की गरगराती कराहों ने नींद आने की हर उम्मीद को खत्म कर दिया था। और सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि इस नम, बदबूदार और स्थिर कीचड़ में हैजा फिर से फैल गया। ऐसे अस्वस्थ और गंदगी भरे माहौल में जहां दवा भी बस नाम को थी, कोई ताज्जुब नहीं था कि ज़्यादातर ज़ख्मी सिपाही जिनकी टांगें या हाथ काटने पड़े थे, वह कुछ बता पाने से पहले ही खत्म हो गए।
अफसरों के लिए कम से कम रेजिमेंट का मैस तो था। लेकिन इनमें ऐंग्लो-इंडियन लोगों को जाने की इजाज़त नहीं थी, जो किसी न किसी तरह कैंप पहुंच गए थे। पादरी रॉटन ने जब उनकी तबाह हालत देखी तो वह इस तरह उसका बयान करता है, “सिकुड़े हाथ-पांव, धंसी हुई बेनूर आंखें, पिचके हुए बेरौनक चेहरे और लरजते हुए बदन। रेजिमेंट के मैस में हैरियट टेलर और उसके बच्चों का प्रवेश भी प्रतिबंधित था, जिनको उस गाड़ी में रहना पड़ रहा था जिसमें फौज का खज़ाना था और जिसकी सुरक्षा उसके पति के जिम्मे थी। वह लिखती हैः “हमारा उस गाड़ी के सिवाय और कोई घर नहीं था। हमें रात-दिन वहां रहना पड़ता था और हम गोद में रखकर खाना खाते थे।
यह बहुत खुली और खतरनाक जगह थी। कुछ दिन बाद एक बहुत पड़ा तोप का गोला हमारी गाड़ी के बिल्कुल करीब आकर गिरा और उसका एक हिस्सा पहियों के नीचे पहुंच गया। शुक्र है कि हममें से किसी को चोट नहीं आई। शाम को कैप्टन विलोक हमसे मिलने आए। उस वक़्त एक गोला फ्लैगस्टाफ टावर के ऊपर से गुज़रता हुआ हमारे पास ही जो सिपाहियों की बैरक थी उसके करीब जाकर गिरा। कैप्टन विलोक अपनी जगह से उछल पड़े और बोले, ‘माई गॉड, यह क्या था?’ मैंने बहुत इत्मीनान से कहा, ‘ओह! बस एक गोला है’। वह मेरे इस लापरवाही भरे जवाब से इतने चकित हुए कि उन्होंने यह वाकुंआ क्लब में सबके सामने दोहराया। और उसके बाद यह एक आम मुहावरा बन गया। ‘ओह! बस एक गोला है।’ वह बेचारे इसके बाद इतने दिन ज़िंदा ही नहीं रहे कि उनको यह अंदाजा होता कि अगर कोई यह आवाजें दिन-रात सुनता रहे तो उनका आदी हो जाता है।