अंग्रेजों ने परेड ग्राउंड पर बने मकानों को गिराकर बनाया प्ले ग्राउंड
क्या ‘मीर’ तू रोता है पामालि-ए-दिल ही को
इन लौंडों ने तो दिल्ली सब सर पर उठा ली है।
दिल्ली सरकार बच्चों के फिजिकल एक्टिविटी पर जोर दे रही है। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब दिल्ली के बच्चों के लिए खेलों की कोई कमी नहीं थी। बच्चों का खेल-तमाशे में बड़ा दिल लगता था। अंधेरी ऊबड़-खाबड़ गलियों में, खुले चौराहों पर, मुहल्लों, कूचों में, घरों और हवेलियों के आंगनों में, बाहर मैदानों में बच्चों के झुंड के झुंड खेलते नजर आते थे। उनमें से बहुत-से खेल तो अब भूले जा चुके हैं। दिल्ली के बच्चे पढ़ाई के मुक़ाबले में खेलों के ज्यादा शौकीन थे। उनका बस चलता तो कभी स्कूल न जाते। स्कूल से लौटते ही अपनी तख्ती, टीन की स्लेट और बस्ता ऐसे फेंकते जैसे किसी क़ैद से छुटकारा हो गया हो और मुंह-हाथ धोए बिना, मां ने जो कुछ दे दिया उसे जल्दी-जल्दी खा-पीकर खेलने की तड़प में उड़न छू हो जाते। । कुछ बच्चे घर में या मुहल्ले में ही खेलते मगर बहुत-से अपने यार-दोस्तों के साथ एक-दूसरे के गले में बांहें डालकर खुले मैदानों में आ जाते, जैसे कि परेड ग्राउंड, बेगम का बाग, या कंपनी बाग या मल्का का बाग जो आजकल गांधी ग्राउंड कहलाता है। दिल्ली की हवेलियां और मकान भी ऐसे तरीके से बनाए जाते थे कि बच्चे घर के आंगन और छत पर आराम से खेलते थे।
1857 ई. में जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर विजय प्राप्त कर ली तो उन्होंने परेड ग्राउंड पर बने खानम के बाज़ार के मकानों और हवेलियों को ढहाकर फ़ौजियों की परेड के लिए मैदान बना दिया। उसमें, रामलीला मैदान और गांधी ग्राउंड में तरह-तरह के खेल खेले जाते थे। परेड ग्राउंड में गुल्ली-डंडा गुच्छी-पाला, गेड़ियां और कबड्डी की पालियां जमतीं। कंपनी बाग में क्रिकेट, हॉकी और फुटबाल खेला जाता था और बाग के पेड़ों की आड़ में आंख-मिचौली होती।
बच्चों के घर के आंगन और गली-मुहल्ले में खेले जाने वाले खेल बड़े निराले और दिलचस्प होते थे। हर मौसम के खेल अलग होते थे-गरमी के और, बरसात के और, जाड़े के और। इन खेलों के नाम सुनकर ही हंसी आ जाती है। कुछ खेलों के नाम ये हैं-आंख-मिचौली, कोड़ा-जमालशाही, पुग्गा-पुगाई, काना कौवा, हलकंकरी, चील-झपट्टा, चद्दर-छिपब्बल, कौड़ी-जगनमगन, सुरंग लाल घोड़ी, चम्मो रानी, हत्था पाशा, झॉयबम, तालबम, चकर-भिन्नी, चकर फेरी, चुन्नी-मुन्नी का पहाड़वा, डंडा-डोली, किलकिल कांटा, ताला कुंजी, भूल-बुझव्वल, इन्नी-मिन्नी मोना माई, अक्कड़-बक्कड़, गेड़ियां, आ मेरी किशमिश और मेरे मखाने, नक्की आवे।
इन खेलों में आंख-मिचौली सबसे अधिक लोकप्रिय थी। कई बच्चे इकट्ठा हो जाते और अपना हिसाब-किताब करके एक बच्चे को ‘चोर’ बना देते हैं जो छिपकर बैठ जाता है। एक बच्चा ‘दाई’ बन जाता है और वह चोर की आंखों पर पट्टी बांधकर उसे अपने पास बिठा लेता है। दूसरे बच्चे इधर-उधर छिप जाते हैं और फिर दाई पट्टी उतार देती है और वह बच्चा छिपे हुए बच्चों में से किसी को ढूंढना शुरू कर देता है। जिस बच्चे पर उसका हाथ पहले पड़ जाता अब वह चोर बनता। अगर कोई बच्चा लगातार सात बार तक किसी को न पकड़ सकता तो उसकी टांगे बांधकर और एक ‘बुढ़िया’ बनाकर एक कोने में बैठा देते और उसके हाथ डंडी पकड़ा देते। वह अपनी डंडी के सहारे पानी भरने जाता और बच्चे उसके आगे-पीछे हंसते और तालियां बजाकर, ‘बुढ़िया’ कहकर छेड़ते। बुढ़िया अपनी डंडी घुमाकर उन्हें मारने की कोशिश करती और अगर उसकी डंडी किसी को लग जाती तो अब वह बच्चा चोर बन जाता।