रामलीला मैदान का इतिहास

अंग्रेजों के राज्य 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के बाद तीस हजारी के पेड़ काट दिए गए थे और वहाँ चाँदमारी का मैदान बन गया था। कुछ समय के बाद यहाँ रामलीला भी होने लगी थी लेदि। दिल्ली वालों ने उस जगह को छोड़कर अजमेरी दरवाजे और तुर्कमान दरवाजे के बाहर रामलीला करनी शुरू कर दी और वह रामलीला मैदान कहलाने लगा। रामलीला की सवारी परेड ग्राउंड के पास के मंदिर से निकलकर चाँदनी चौक, नई सड़क, चावड़ी बाज़ार और अजमेरी दरवाजे से होती हुई रामलीला मैदान पहुँच जाती थी। रात के समय सवारी की धूम और भी बढ़ जाती थी। शहर के पहलवान बाँके, बनौट, बनैटी और दूसरे करतब दिखाते हुए सवारी के साथ चलते थे डंडे खेलने वाले तबले की थाप पर नाचते, अठखेलियाँ करते साथ होते नफ़ीरी और शहनाई भी बजती रहती। रास्ते में दोनों ओर नीचे पटरियों पर और ऊपर छतों से लोगों की बड़ी भीड़, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल होते, सवारी देखती। कई वर्षों तक रामलीला की सवारी मशालों की रोशनी में भी निकलती रही।

रामलीला के महंत उन रथों में सजे-सजाए राम, लक्ष्मण और सीता के क़दमों में बैठे होते थे। रामचन्द्रजी, लक्ष्मण और सीता के पीछे खड़े रामभक्त हनुमान कंधे पर गदा रखे एक हाथ से मोरछल हिलाते रहते। रावण के हवादार को कई-कई कहार उठाते थे लोगों की भीड़ रावण को मूँछों पर ताव देखकर चीखने लगती, ‘मारा जाएगा रे मारा जाएगा। मगर रावण पर कोई असर न होता और वह मूँछों पर ताव देता रहता। जुलूस में हर रोज एक नई झाँकी भी होती जिस दिन राम, सीता और लक्ष्मण वनवास जाते उस दिन रामलीला मैदान के पास शाहजी के तालाब में किश्ती पर आकर बैठते और केवट उन्हें गंगा पार ले जाता था। आज़ादी के बाद उस तालाब को पाट दिया गया था और वहाँ पंजाब से आए शरणार्थियों के लिए एक मार्किट बन गया जो अब कमला मार्किट कहलाता है।

उत्साह

दशहरे और रामलीला का जोश-खरोश दिल्ली में होता था उसकी बात ही कुछ और थी। दिल्ली के गली-कूचों में बच्चे रंग-बिरंगी झंडियाँ और पन्नी चढ़े तीर-कमान लिए और अपने चेहरों पर तरह-तरह के मुखौटे लगाए या हनुमान की सेना बने दिनभर घूमते और गुल-गपाड़ा करते रहते थे। शाम को रामलीला के मैदान में तिल धरने को जगह न मिलती थी। मदों, औरतों, बूढ़ों और बच्चों सभी को रामलीला का शौक होता था और एक बार बैठकर कोई हिलने का नाम नहीं लेता था और भीड़ थी कि लहर-दर-लहर चली आ रही है। औरतों के बैठने का प्रबंध अलग होता था। मगर भीड़ में जिसको जहाँ जगह मिली अपने कुटुंब समेत वहीं बैठ जाता था। सेवा समिति और महावीर दल के स्वयंसेवक भारी संख्या में मौजूद होते और किसी प्रकार की अव्यवस्था नहीं होने देते मुसलमानों की एक खासी तादाद भी, जिसमें औरतें और बच्चे शामिल होते, जुलूस और रामलीला देखते और बड़े-बूढ़े बच्चों को बताते रहते हैं कि ‘यह रामजी हैं, यह लक्ष्मण, यह सीता और वह हनुमान। दशहरे के दिन जब रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जलाए जाते जो हर साल पहले से ज्यादा ऊँचे बनाए जाते तो भीड़ की कोई सीमा न होती। फिर आतिशवाजी होती और ऐसी होती कि दर्शक दंग रह जाते। दिल्ली की आतिशवाजी यों भी मशहूर थी

पहले दिल्ली में एक ही रामलीला होती थी। लेकिन दिल्ली बढ़ती गई और नई-नई बस्ती कायम होती रहीं। फिर इतनी बड़ी भीड़ एक ही मैदान में कहाँ तक समाती ? अब जितनी रामलीलाएं दिल्ली में होती हैं शायद देश के किसी दूसरे शहर में नहीं होतीं। लेकिन रामलीला मैदान, परेड ग्राउंड, गाँधी ग्राउंड और गाँधी मैदान की रामलीलाएँ देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। इनके अलावा एक मंच पर नृत्य नाटक के रूप में प्रस्तुत रामलीला बड़ी लोकप्रिय है और लोग हजारों की संख्या में उसे देखते हैं।

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