दिल्ली में हर युग में रामलीला बड़ी धूमधाम से मनाई जाती रही है। प्राचीन दिल्ली में भी रामलीला बड़े उत्साह से मनाई जाती थी और दशहरे के दिन तो इतनी भीड़ होती थी कि लगता था सारी दिल्ली उमड़ पड़ी है। दरअसल दिल्ली का दशहरा दूर-दूर तक मशहूर था और उसे देखने के लिए जहाँ दिल्ली वाले टूट पड़ते थे, वहाँ बाहर के पास के इलाक़ों से भी हजारों लोग जमा हो जाते थे। मिर्ज़ा क़तील की पुस्तक हफ़्त तमाशा ढाई सौ वर्ष पहले फारसी में छपी थी उसमें हिन्दुओं के दूसरे त्योहारों के अलावा दशहरे और रामलीला का भी जिक्र है। लिखा है-
“शहर के हिन्दू-मुसलमान मिल-जुल कर दशहरे का त्योहार मनाते हैं। दिल्ली के बाजारों, चौकों और चौराहों पर आदमी की लंबाई से कुछ ऊँचे कागज और खपच्चियों से बने पुतले खड़े किए जाते थे। रावण के पेट में एक मिट्टी की होड़ी में शरबत रख दिया जाता था। दशहरे के दिन छोटे-छोटे बच्चे राम बनकर आते थे और कमानों में तीर लगाकर रावण का पेट फोड़ते थे। रामचन्द्रजी के रावण पर विजय पाने का तमाशा देखने के लिए जगह-जगह लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी।”
उस जमाने में लोगों को मिट्टी की हाडियों में से शरबत निकालकर कुल्हड़ों में पिलाया जाता था। वे सब शरबत को रावण का खून समझकर पीते थे। जमना के किनारे मेला लगता था जिसमें इतनी भीड़ होती थी कि अंदाजा लगाना भी मुश्किल था।”
रामायण उर्दू में
उन दिनों फ़ारसी और उर्दू का दौर था गोस्वामी तुलसीदास की चौपाइयों के साथ-साथ रामायण को उर्दू शेरों में भी प्रस्तुत किया जाता था। लाल क़िले में हर बड़ा हिन्दू त्योहार पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता था। दशहरे के दिन बादशाह दरबार करते थे। पहले एक नीलकंठ वादशाह के सामने उड़ाया जाता। नीलकंठ विजय और सफलता का प्रतीक है। यह लीजिए वाजखाने का दारोगा बाज और शिकारे लेकर आ रहा है। बादशाह बाज़ को लेकर अपने हाथ पर बिठाते हैं। चंग्रेजों और तुर्कों के लिए बाज आजादी और सफलता का चिह्न है।
दशहरे के अवसर पर बादशाह दरबारियों को इनाम देते थे। तीसरे पहर शाही अस्तबल का दारोगा घोड़ों पर पैरों को मेंहदी से रंगकर, पेशानी पर बेल-बूटे बनवाकर और सोने-चाँदी की झूलों और काठियों से सजाकर किले के झरोखों के नीचे ले आता। बादशाह झरोखे में से घोड़ों का निरीक्षण करते और बढ़िया सजावट के लिए साईसों और दारोगा को इनाम देते।